साढ़े 52 वर्षों से एक सरकारी नोटिफिकेशन और उसमें संशोधनों से ही कार्य कर रहा है आयोग: एडवोकेट हेमंत कुमार
CHANDIGARH, 06 AUGUST: ऐसा सुनने और पढ़ने में भले ही अत्यंत आश्चर्यजनक प्रतीत हो परन्तु सत्य यही है कि प्रदेश में आज तक लाखों सरकारी कर्मचारियों (राजकीय विभागों के अतिरिक्त प्रदेश के सरकारी बोर्डों, निगमों आदि हेतु भी) के लिए चयन करने वाला हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग (एच.एस.एस.सी.) को वैधानिक (कानूनी) दर्जा ही प्राप्त नहीं है।
पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के एडवोकेट हेमंत कुमार ने बताया कि डेढ़ पूर्व मार्च, 2021 में हरियाणा सरकार द्वारा एच.एस.एस.सी. का पुनर्गठन किया गया था, जिसमें भोपाल सिंह खदरी को चेयरपर्सन और कंवलजीत सैनी, विजय कुमार, सत्यवान शेरा, विकास दहिया और सचिन जैन को सदस्य नियुक्त किया गया था। हालांकि गत माह जुलाई, 2022 में आयोग के सदस्य सत्यवान ने पद से त्यागपत्र दे दिया था। उनके स्थान पर पांचवे नए सदस्य की नियुक्त आज तक नहीं की गयी है। गत वर्ष ही प्रदेश सरकार द्वारा हालांकि आयोग के सदस्यों की संख्या को पूर्ववर्ती 11 से 4 घटाकर 7 कर दिया गया था। हालांकि आज तक छठे सदस्य की नियुक्ति भी नहीं की गयी है। यहीं नहीं केंद्र सरकार की सेवा में रहते हुए आयोग में एक सदस्य कंवलजीत सैनी की नियुक्ति भी सवाल उठते रहे हैं।
बहरहाल, आज से एक वर्ष पूर्व अगस्त, 2021 में आयोग की अनुशंसा ( रेसोलुशन) पर प्रदेश सरकार ने विधानसभा मार्फ़त एक सख्त लोक परीक्षा नक़ल विरोधी कानून बनवाया, जिसे 10 सितम्बर, 2021 से लागू भी कर दिया गया हालांकि यह बात और है कि आज तक उस कानून के अंतर्गत नियम नहीं बनाये गए हैं। बहरहाल, आज तक मौजूदा आयोग द्वारा स्वयं को कानूनी दर्जा देने बारे कोई रेसोलुशन पारित कर प्रदेश सरकार को नहीं भेजा गया है।
हेमंत ने बताया कि वह आज तक इस बात पर हैरान है कि मौजूदा खट्टर सरकार द्वारा भी उसके आज तक के करीब आठ वर्ष के कार्यकाल में एच.एस.एस.सी. को विधानसभा मार्फत वैधानिक (कानूनी) दर्जा क्यों नहीं प्रदान किया ? उन्होंने बताया कि आज तक इसका संचालन 52 वर्षो पूर्व जनवरी, 1970 में तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा जारी एक गजट नोटिफिकेशन से, जिसमें हालांकि आज तक समय समय पर सम्बंधित राज्य सरकारों द्वारा अपनी मनमर्जी से बदलाव किया जाता रहा, से ही किया जा रहा है।
आज से चार वर्ष पूर्व जुलाई,2018 में हेमंत ने हरियाणा के तत्कालीन राज्यपाल, मुख्यमंत्री और तत्कालीन मुख्य सचिव डीएस ढेसी (वर्तमान में मुख्यमंत्री के मुख्य प्रधान सचिव ) आदि को अलग अलग अभिवेदन भेजकर 28 जनवरी 1970 को अधीनस्थ सेवाएं चयन बोर्ड (एस.एस.एस.बी.), जिसका नाम दिसंबर 1997 में बदलकर हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग (एचएसएससी) किया गया था, का गठन भारत के संविधान के अनुच्छेद 309 के अंतर्गत जारी एक गजट नोटिफिकेशन द्वारा किये जाने एवं आज तक उसी में ही संशोधन किये जाने पर कानूनी प्रश्न चिन्ह उठाया था। हालांकि आज तक इस सम्बन्ध में उन्हें प्रदेश सरकार से कोई जवाब प्राप्त नहीं हुआ है।
इस सम्बन्ध में हेमंत ने बताया कि संविधान के उक्त अनुच्छेद 309 में केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार के सरकारी कर्मचारियों की भर्ती एवं सेवा सम्बन्धी अधिनियम एवं नियम बनाने का प्रावधान है एवं किसी भी प्रकार से भी इस अनुच्छेद के तहत सरकारी कर्मचारियों के लिए कोई चयन एजेंसी अर्थात बोर्ड या आयोग गठित नहीं किया जा सकता है। केंद्र सरकार द्वारा भी अपने कर्मचारी चयन आयोग (स्टाफ सिलेक्शन कमीशन ) जिसे पहले अधीनस्थ सेवाएं आयोग (सबोर्डिनेट सर्विसेज कमीशन) कहा जाता था, का सर्वप्रथम गठन इंदिरा गाँधी सरकार दौरान नवंबर 1975 में भारत सरकार के कार्मिक विभाग के रेसोलुशन द्वारा किया गया था। इसके बाद मई, 1999 में वाजपेयी सरकार द्वारा कर्मचारी चयन आयोग का पुर्नगठन भी कार्मिक मंत्रालय के नए रेसोलुशन द्वारा किया गया अर्थात दोनों बार इसके गठन में संविधान के अनुच्छेद 309 के परन्तुक का प्रयोग एवं उल्लेख कहीं नहीं किया गया, जिससे स्पष्ट होता है कि हरियाणा द्वारा उक्त प्रावधान में हरियाणा कर्मचारी आयोग का गठन कानूनी तौर एवं संवैधानिक दृष्टि से उचित नहीं है। जहाँ तक हरियाणा लोक सेवा आयोग (एच.पी.एस.सी.) का विषय है तो उसके लिए संविधान के अनुच्छेद 315 में स्पष्ट उल्लेख मौजूद है।
हेमंत ने बताया कि आज से साढ़े 17 वर्ष पूर्व दिसंबर,2004 में हरियाणा कि तत्कालीन चौटाला सरकार ने प्रदेश विधानसभा मार्फ़त हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग अधिनियम, 2004 बनवा एच.एस.एस.सी. को वैधानिक (कानूनी ) मान्यता प्रदान की थी परन्तु तीन माह बाद ही मार्च, 2005 में जब भूपेंद्र हुड्डा प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने नई विधानसभा के पहले ही सत्र में हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग (निरसन ) विधेयक, 2005 सदन से पारित करवाकर आयोग को मिला कानूनी दर्जा समाप्त करवा दिया। हालांकि इसके लिए दोनों सरकारों (मुख्यमंत्रियों ) की अपनी अपनी मजबूरी थी. चौटाला चाहते थे कि वर्ष 2005 विधानसभा आम चुनावो के बाद अगर उनके हाथ से सत्ता चली गयी तो इसके बावजूद उनके द्वारा नियुक्त आयोग के चेयरमैन और सदस्य अपने पद पर कायम रह सकतीं, जबकि हुड्डा जब मुख्यमंत्री बने तो वह उन्हें हटवाकर आयोग में अपनी मनमर्जी के चेयरमैन और सदस्य नियुक्त करना चाहते थे।