हम तो बचपन से ही आंसू भरे गीत सुनते आ रहे हैं, गुनगुनाते भी जा रहे हैं। कभी-आंसू भरी हैं, ये जीवन की राहें…या ये आंसू मेरे दिल की जुबान हैं… तेरी आंख के आंसू पी जा…मेरी याद में न तुम आंसू बहाना…मुझे भूल जाना, कभी याद न आना…छोड़ दो आंसुओं को हमारे लिए…वगैरा-वगैरा। जरा एडल्ट हुए तो एक पाकिस्तानी गज़ल गायक ने गा-गाकर रुलाया- चुपके-चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है…। इस गजल को सुन सुनकर सब किसी न किसी की याद में चुपचाप रो-धो लेते हैं। फिर सलमा आगा आ टपकी-दिल के अरमां आंसुओं में बहाने चली आई। उर्दू के शायर अश्कों से खेलते रहे। हिन्दी के कविगण अश्रुओं से।
फिल्मी गीतकारों की मानें तो हजारों तरह के होते हैं ये आंसू, अगर दिल में गम हो तो रोते हैं आंसू, खुशी में भी आखें भिगोते हैं आंसू, इन्हें जान सकता नहीं ये जमाना, मैं तो दीवाना दीवाना दीवाना। खैर! यह गाना सचमुच एक रिसर्च का विषय है। हमें ताज्जुब है कि अभी तक ऐसे विषय पर किसी ने डॉक्टरेट क्यों नहीं की ? हमें खुद अपनी अक्ल पर तरस आ रहा है कि इधर-उधर व्यंग्य लिखने की बजाय इसी टॉपिक पर कलम घिस लेते तो औरों की तरह हमारी नेम प्लेट पर भी ज्योतिषाचार्य की बजाय आज डाक्टर मदन गुप्ता सपाटू लिखा होता। लेकिन जनाब! जो मिला उसे मुकद्दर समझ लिया। बजट इस सरकार का हो या उस सरकार का, हमें तो यही गा गाकर तसल्ली करनी पडत़ी है- बहुत दिया देने वाले ने तुझको, आंचल ही न समाए तो क्या कीजै ? जब भी बजट आता है, विरोधी दल की तरह और एक कॉमन मैन की तरह हम भी एक आध टसुए बहाकर दिल को तसल्ली दे लेते हैं और अगले दिन काम पर चल देते हैं। इस साल 75 तक का रिकार्ड बनाने वाले को इन्कम टैक्स की रिटर्न नहीं भरनी पड़ेगी और शायद कोई सरकार अगले बजट में कह दे कि भई, इस साल शतक बनाने वालों को आयकर नहीं देना पड़ेगा। हम इंतजार करेंगे कयामत तक कि कोई टैक्स न देना पड़े। इसे कहते हैं मारे भी और रोने भी न दे!
खैर! मन की बात थी आंसुओं में बह गई। रेडियो पर मन की बात चलती रहती है। कभी ‘सखी-सहेलीÓ प्रोग्राम में तो कभी राष्ट्र के नाम। कोई मन की बात कर रहा है। कोई तन की कर रहा है। किसान ठंड में तन की, मन की और अन्न की बात करता रहा है। पर आज हम दिल की बात करेंगे। जो हर आम आदमी के होती है।
कभी खुशी के आंसू तो कभी गम के आंसू। कभी खून के आंसू। कभी मगरमच्छी, कभी घडिय़ाली। कभी खुशी के, कभी दुख के। यानी आंसुओं की भी पिज्जे की तरह कई वरायटी हैं। कोई घडिय़ाली आंसू बहाता है, कोई अपनी औेकात देख भाल कर …थोड़ा कम पावर का यानी मगरमच्छी आंसू।
प्राचीन काल में एक राजा की तीन रानियों में से एक ने रो रोकर तीन वर मांग लिए थे और पूरा परिवार तो उम्रभर क्या कई पीढिय़ों तक, कभी खुद को तो कभी उन आंसुओं को याद करता रहा होगा। आज की डेट में पत्नी का एक आंसू भी आपकी जेब हल्की कर सकता है। उसकी अश्रुधारा आपके डेबिट-क्रेडिट कार्ड का कबाड़ा कर सकती है। फिल्मों में तो एके हंगल रो रोकर ही अपनी बात हीरो से मनवा लिया करते थे। आंसुओं में बड़ी शक्ति होती है। अश्रुशक्ति के आगे बड़े-बड़े नहीं टिक पाए।
कभी खुद पर, कभी हालात पे रोना आया…आपने भी गाया होगा। लेकिन जनाब कइयों के अचानक अकाल चले जाने पर भी रोना आता ही नहीं। गावों में तो ऐसे मौकों पर रोने वालियां बुलाई जाती थीं। कोई आपका उधार बिना चुकाए ही ऊपर निकल ले तो आप यही नहीं तय कर पाएंगे कि अफसोस उसके लुढ़क जाने का करें या अपने लुट जाने का। आंसू टपकाएं या वेस्टेज सेे बचें। फिल्मों में तो आखों में ग्लीसरीन लगा दी जाती है और कलाकार एक्शन चिल्लाने पर रोना शुरू करता है ओैर कट कहने पर फट से रुक जाता है। रोने के भी पैसे वसूल कर लेता है।
गावों में ऐसे मौके पर रोने वालियां तब तक चुप नहीं होतीं जब तक उनकी तयशुदा पेमेंट के साथ खुश होकर एडीशनल बख़्शीश न बख़्श दी जाए। वो ऐसी दहाड़ें मार-मारकर आंसू निकाल-निकाल कर और मरने वाले का नाम ले-लेकर एक-दूसरे की छाती पीट-पीट कर जो समां बांधती हैं कि एक बार तो मरने वाले का भी आखें खोलकर उन्हें देखने के लिए दिल मचलने लगता है। ऐसी प्रोफैशनल कि अच्छे-भले घरवाले भी उनके साथ रोते-पीटते गिद्दा नुमा अफसोस जताते हुए रोने लगते हैं। एक बार हमारे गांव का नाई ऐसी ‘अफसोस एक्सपर्ट टीम’ को नत्थू हलवाई के मरने पर न्योता दे आया। जल्दबाजी में गलती से नत्थू की बजाय सत्तू का नाम बता आया। और उस टीम ने सत्तू पंसारी के सामने ही उसका स्यापा शुरू कर दिया- वे सत्तू तूं कित्थे चला गया…बेबे नूं नाल क्यूं नी लै गया… ऐन्नी छेत्ती की पई सी…?
अब सत्तू पंसारी जो नत्थू हलवाई की मय्यत में पधारे थे, समझ नहीं पा रहे थे कि मैं रोऊं या गाऊं? नाई बेचारा ‘स्यापा कंपनी’ को इशारे से नाम की गलती सुधरवाने की कोशिश करता रहा। उन्होंने समझा नाई पार्टीसिपेट करने का आग्रह कर रहा है। और इसी गलतफहमी में नाई की छाती भी पिटती रही और बीच-बीच में धुनाई भी साथ-साथ होती रही जब तक उसने सचमुच दर्द से आंसू नहीं टपकाए। राजस्थान में पैसे लेकर रोने वाली पेशेवर जाति आज भी है, जिसे रुदाली कहा जाता है और इस पर फिल्म भी बन चुकी है। अब शोक सभा भी एक ईवेंट मैनेजमेंट है। आने वाले समय में घर वाले अमरीका, आस्ट्रे्लिया या कैनेडा में होंगे और उनके मरने पर चार आंसू बहाने के लिए प्रोफैशनल टीम ही बुलानी पड़ेगी, जिसकी आनॅलाइन बुकिंग भी हो जाएगी।
आपने लीव एन्कैशमेंट सुनी होगी और वसूली भी होगी, कभी-कभी गंवाई भी होगी। क्या कभी आंसुओं की एन्कैशमेंट सुनी? तो आप कैलिफोर्निया की लेडी किलीरिन मार्गरेट का किस्सा सुनकर अवश्य इन्स्पायर हो जाएंगे। आंसुओं में बहुत दम होता है सर जी। उनकी अपनी कीमत है। भुनाने की कला आनी चाहिए। हुआ यूं कि दुनिया से रुख़्सत होने से पहले मार्गरेट मैडम के पास 80 हजार डॉलर थे। आगे न पीछे कोई। वसीयत कर गई। वो ये कि यह रकम उसके अंतिम संस्कार की यात्रा में शामिल अफसोसकर्ताओं के बीच बांट दी जाए। मरते-मरते मोहतरमा शर्त भी टिका गईं कि जो उसके जनाजे में चुपचाप चलेगा, उसे 5-5 डालर ही टिकाए जाएं, जो छाती पीट-पीटकर और गला फाड़कर चिल्लाए और आंसू बहाए, उन्हें 50-50 डालर अदा किए जाएं। जनाजा धूमधाम से निकला। कोई चुपचाप नहीं चला। सब दहाड़ें मार-मारकर चल रहे थे।
मार्गरेट शायद ताबूत में लेटी-लेटी, अंदर ही अंदर गा रही होगी-‘जदों मेरी अर्थी उठा के चलणगे, मेरे यार सब दहाड़ के चलणगे।’ यदि ऐसा जनाजा खुदा न खास्ता दिल्ली में निकलता तो भीड़ सिंघू और टीकरी बार्डर के अलावा 5 और कोनों से घुसने की कोशिश करती। अमेरिकी पॉप गायिका रिहाना, स्वीडन की ग्रेटा टिनटिन थुनबर्ग, वयस्क फिल्मों की कलाकार मियां खलीफा, मियां मालकोवा भी अपने फन का मुजाहरा कर लेती!
मार्गरेट कुछ देर में ‘रैस्ट इन पीस’ हो गईं और रोने-पीटने वाले अपना-अपना पैसा वसूल कर घर आ गए। सो भैया! अपने आंसुओं को बेकार न जाने दो। इसकी वसूली के नए-नए तरीके ढूंढो।
आम आदमी की फितरत में रोना वैसे भी लिखा ही होता है। वह प्याज काटते हुए भी रोता है और प्याज के रेट देख कर भी रोता है। आम आदमी ही नहीं, बल्कि नेता भी रोता है। आपने कई मुख्य मंत्रियों यहां तक कि प्रधानमंत्रियों को भी टीवी पर कई बार रोते देखा होगा। कुछ नेता तो पार्टी से टिकट न मिलने पर प्रेस कांफ्रैंस करके रो-धो कर पब्लिसिटी और सहानुभूति दोनों बटोर लेते हैं और उनके आंसू काम कर जाते हैं, टिकट मिल जाते हैं। फिर जीत के आंसू और हार के भी जनता ताकती रहती है। कई नेता तो चुनावी सभाओं में वोट मांगते-मांगते ही रो पड़ते हैं और इसी आर्ट के कारण जीत भी जाते हैं। आंसुओं की इनवेस्टमेंट वसूल हो जाती है।
नेता का रोना हमारे देश में बड़ा मायने रखता है। इसमें टाइमिंग का बहुत महत्व है। किस बात पर रोना है, कब रोना है, किस आंख से रोना है, किस चैनल के आगे रोना है, यह सब आपके केलिबर पर निर्भर करता है। आप हरे साफे से आंसू पोंछते हैं या भगवे से…अपन के देश में आपकी फॉलोइंग इस बात पर बहुत निर्भर करती है। नेता के आंसू फूल भी बन सकते हैं और अंगारे भी। कद घटा भी सकते हैं, कद बढ़ा भी सकते हैं। नेता के आंसू तुम क्या जानो आम आदमी? ये देश की दशा और दिशा सब बदल सकते हैं बाबू…। ये किसी भी सड़क पर बैठे-बैठे जनता और सरकार दोनों की ही तबियत खराब या दुरुस्त कर सकते हैं। तुम क्या जानो एक बूंद आंसू की कीमत क्या होती है बाबू? लेकिन अब भी नहीं जाने तो कब जानोगे बाबू?
- मदन गुप्ता सपाटू, 458, सैक्टर-10, पंचकूला। मो-98156-19620