कल पप्पू अपने पापा से पूछ रहा था- ‘डैडी, डैडी आजकल कोरोना अंकल आपके पास नहीं आ रहे ?’ बाप ने बेटे को ‘डांटा- ‘कोरोना अंकल के बच्चे…….वो खुराना अंकल हैं।’ पप्पू ने सफाई दी- ‘डैैडी मैं ये वर्ड बार-बार रेडियो, टीवी, क्लास, इधर-उधर, आपके फोन, आंटियों की बातचीत में सुन-सुन कर अंकल के नाम में कन्फ्यूज हो गया था। अच्छा पापा…ये दो गज की दूरी क्या होती है? आप और मम्मी की दूरी तो पता है पर ये दो गज अंकल क्या हैं?’
डैडी जी ने समझाने की कोशिश की- ‘मेरी गलती के इंटेलीजेंट नतीजेे! हमारे जमाने में ये मैथ के सवाल में होता था, जब रुपए, आने, पाई , सेर , छंटाक, गज, फुट, इंच के सवाल न आने पर मास्टर जी अपना गजनुमा डंडा हमारी हाथ की सिकाई के लिए हमेशा ऐसे लिए चलते थे जैसे सिपाही अपनी बंदूक लेकर हर वक्त तैयार रहता है। हमारे प्रधानमंत्री भी उसी जमाने के हैं, तभी तो दो गज की दूरी ही याद रहा, मीटर नहीं वरना आज तुम इतने कन्फ्यूज न दिखते। उन दिनों कपड़े की दुकानों पर जब कोई लड़ाई-झगड़ा हो जाता था तो बजाज वगैरा इसी गज को अस्त्र-शस्त्र बनाकर धुनाई करते या करवाते थे।’
जमाना बदल गया है। 2020-21 में नए-नए शब्द सामने आ गए हैं। उन्हें बोलने के लिए जीभ को कई एंगल से मोड़ना पड़ता है, तब कहीं वो शब्द बाहर निकल पाता है। जैसे किसी ट्रैवल एजेंट को कोई बोले कि जरा चेकोस्लोवाकिया को अंग्रेजी में लिखकर दिखा तो वह नकल मारकर ही लिख पाएगा। ऐसे ही जब एक दौर में कई फिल्मी सितारों ओैर शायरों को भारत में डर लगने लगा था तब एक अभिनेता की टीवी डिबेट में बार-बार जुबान की सुई ‘असहिष्णुता’ शब्द बोलने पर अटक जाती थी और अंततः उन्होंने ‘इनटोलरेंस’ बोल के पीछा छुड़ाया। कुछ ऐसे ही, अब कई दवाइयों के नाम बोलने मुश्किल हो गए हैं। हालांकि कोई डॉक्टर यदि अपने पेन के रिफिल की स्याही चेक करने के लिए उसे किसी पर्ची पर घिसा-घिसा कर लकीरें खींच दे या गोले बना दे तो भी उस पर्ची को देखकर कोई न कोई केमिस्ट उसे दो-चार सौ की दवाई तो चिपका ही डालता है।
बाकी अभी जनता न ठीक से क्वारंटाइन या क्वारंटीन बोल पाई थी, न लिख ही पाई थी कि एक और नई मुसीबत आ गई- रेमडिसिवर, जिसे न मांगने वाला ठीक से बोल पा रहा है, न देने वाला केमिस्ट। कई बेचारे जो योगा के शौकीन हैं, वे इसे ‘राम देव सर’ ही बोले जा रहे हैं।
पुराने जाने-पहचाने रोजमर्रा के शब्द तो मानो कोरोना ही उड़ा ले गया। पहले तो 2019 में कारों के मॉडल की तरह बीमारी का नया मॉडल कोविड-19 आ गया। जरा इसकी खोज की तो पता चला कि कोरोना वायरस का तकनीकी नाम ‘सार्स कोव-2’ है। इस वायरस से होने वाली बीमारी को कोविड कहते हैं। बस यों समझ लीजिए कि रिश्ता करने से पहले खानदान का पता करना जरूरी है। कोविड-19 इसलिए कहने लगे, ताकि इसकी मैन्युफैक्चरिंग डेट याद रहे। कहीं कोई 2022 मॉडल आ जाए तो सीनियर-जूनियर का पता रहे।
दिनचर्या तो बदली ही, लोगों के टाइटल ही बदल गए। मीडिया का इसमें अमूल्य योगदान रहा है। जो लोग बिना मास्क पहने मटरगश्ती करते हैं या कोविड नियमों का पालन नहीं करते हैं, ऐसी बिरादरी का नाम ‘कोविडियट्स’ ही रख दिया गया, ताकि उनके खानदान का पता चलता रहे। ऐसे लोगों की पिछले साल से अब तक छित्तर परेड जारी है। एक आईएएस का मेन्ज क्लीयर करने का दावा करने वाली मोहतरमा ने तिहाड़ जेल अपने सजना के साथ जाना पसंद किया लेकिन मास्क लगाना नहीं। ऐसे ही जीन्स वालों को ये उपाधि प्रदान की गई है। कई ऐसे पुलिस वाले भी हैं, जो खुद बिना मास्क के दूसरों को मास्क पहना रहे हैं।
नामकरण में हमारे चौथे स्तंभ का बहुत बड़ा योगदान रहा है। आजादी से लेकर 2019 से पहले तक मीडिया ने एक प्रधानमंत्री को देश का चाचा कहलवा दिया। एक को ताऊ, तू कौन मैं खाम खा। किसी को पूरे भारत की अम्मां कहलवा दिया तो किसी को बैठे-बिठाए देश की दीदी बना दिया। बाकी जो बचा तो एक को राष्ट्र बहन जी बना डाला। एक राज्य के मुख्यमंत्री मामा कहलाने लगे परंतु पूरे हिन्दुस्तान के जीजा, फूफा या मौसा नजर नहीं आए।
एक को मीडिया जीजा जी लिखता तो रहता है परंतु लोग उन्हें डुप्लीकेट मानते हैैं। और अगर मजाक में कहें तो राष्ट्रपिता हैं। राष्ट्रमाता नहीं हैं। राष्ट्र्पति हैं लेकिन राष्ट्रपत्नी नहीं। अम्मां थीं तो पापा नहीं दिखे। बहन जी हैं तो जीजा जी नदारद हैं। हैं तो वो डुप्लीकेट। दीदी हैं तो दादा नहीं।
अब कुछ ऐसे ही एक नामकरण हुआ है-‘कोरानियल्ज’। बोले तो जिन का शिलान्यास लॉकडाउन के फुर्सत के क्षणों में नई-नई रेसिपियां बनाते, खाते, ओैरों को चखाते हो गया है और वे 2019 या 2020-21 मॉडल हैं, उनका गोत्र ‘कोरानियल्स’ कहलाएगा।
हाल हीे में आए कुछ दवाइयों के नाम बोलकर जीभ टेढ़ी होने लग जाती है। हाइड्रोक्लोरोक्वीन, ड्रमसक्रालिंग, रेमडेसिविर, मोनोक्लानल,एंटी बॉडी थैरेपी जेैसे शब्दों को बोलकर खुद डाक्टर होने का एहसास होने लगता है। एक दिन हमने एक मित्र को यह बताने के लिए फोन किया कि उनकी सास रास्ता भूलकर हमारी गली में घूम रही है। हमारी बिना सुने अगला हम से यही पूछने लग बैठा-‘आक्सीजन लेवल क्या चल रहा है, बुखार तो नहीं, हल्दी वाला दूध और काढ़ा ले रहे हो, गिलोय का जूस पी रहे हो न…। अपना ख्याल रखना। बड़ा फैेल रहा है, हैं जी। टेक केयर ? फोन बंद। अगला दूसरे के हालचाल पूछने में व्यस्त। उनकी सास हमारे पल्ले, वो भी हियरिंग एड के बिना। इस उम्र में-‘जाने क्या मैंने सुनी, जाने क्या तूने कही, वाली हालत बनी रही।’ सास उनकी, शाम तक टेक केयर का ठेका हमें मिल गया। भाई साहब का तो फोन मिला नहीं। आखिर में हमें ही उन्हें लोड करके उनके घर अनलोड करना पड़ा।
लगभग हर अनपढ़ और पढे-लिखों के भेजे की डिक्शनरी में कोरोना वेव, कोरोना कर्व, वेरिएंट, वैक्सीन, को-वैक्सीन, कोविशील्ड, इम्युनिटी, टैैस्ट, डबल म्युटेंट, ट्रिपल म्युटेंट, बंगाल वेरिएंट, सेनेटाइजर, मास्क, कोरोना वारियर्ज, हैल्थ वर्कर्ज, डीप क्लीन, क्म्युनिटी स्प्रेड, कम्युनिटी ट्रांसमिशन, इन्क्युवेशन, कोरोना कर्व, पैनिक बाइंग, पेंशेंट जीरो, सेल्फ आइसोलेशन, ऑनलाइन क्लासिज, ऑनलाइन शापिंग, वर्क फ्राम होम जैसे शब्द ऐसे फिट हो गए हैं जैसे क से कबूतर, ख से खरगोश….। इनके हिन्दी में शब्द बोलने संस्कृत जैसे लगते हैं, इसीलिए सबको हिंग्लिश से ही काम चलाना पड़ रहा है।
हाथ मिलाने की जगह हाथ जोड़ने की प्रथा आ गई। जिन से रहा नहीं जाता वो ‘एल्बो बम्प’ यानी कोहनी टकराकर अपनी ख्वाहिश या खुंदक पूरी कर लेते हैं। बच्चों को वेबीनार, नेट कनेक्शन जैसे शब्द उनके सिलेबस में लग गए। कवि-कवियत्रियों की भरमार हो गई है। हर कोई वेबीनार पर उछल-उछल कर अपनी कविताएं सुना रहा है। पति अपनी बला दूसरों पर डाल रहे हैं कि भई हमें ही अकेले सजा क्यों मिले, आप भी सुनो, फिर सोचो कि हम पर क्या-क्या कहर बरसता है।
देखते जाएं आगे-आगे होता है क्या! हो सकता है नए पैदा होने वाले बच्चे मास्क सहित ही इस दुनिया में कदम रखें। होनहार बिरवान के होत चिकने पात की जगह सब कहें-होनहार बिरवान के होत लाल-लाल मास्क!
- मदन गुप्ता सपाटू, 458, सैक्टर-10, पंचकूला। मो-9815619620