हमारे एक अंतरंग मित्र का अकाल चला जाना हो गया। परंपरानुसार सब गैरपरंपरागत और आधुनिक तरीके से अंतिम संस्कार के लिए इलैक्ट्रिक क्रिमेशन में इकटठे् हुए औेर खटाक-फटाक से अंतिम विदाई दे दी गई। न धुआं-न धक्कड़ ओैर एकसप्रेस-वे से निकल गए फक्कड़। कुछ रिश्तेदारों का सुझाव था कि आज के क्विक सिस्टम में लगे हाथ ही श्मशान में बने एयरकंडीशंड हाल में शोकसभा भी निपटा ली जाए। हरिद्वार में तो यह सारा हिसाब-किताब गंगा के किनारे साथ-साथ ही बना हुआ है परंतु परिवार के कुछ विरोधी दल के संबंधियों, जिनसे मुकंदी का 36 का आंकड़ा था, ने यह प्रस्ताव बहुमत से खारिज कर दिया। रिश्तेदारों के एक वर्ग ने असंतुष्टों को सांत्वना देते हुए समझाया कि जहां 80 साल तक मुकंदी लाल को सहा है, वहां बस 3 दिन और वेट कर लो, चौथे दिन उठाला कर दिया जाएगा।
दूर से आए रिश्तेदार ठहर गए। 3 दिन अच्छी तरह रोज गार्डन, रॉक गार्डन, लेक, सैक्टर-17, एलांटे मॉल छान आए। चौथे दिन मंदिर में पूरे जश्न ओ टशन के साथ यानी लंच में फाइव स्टार बुफे विद 5 डेसर्ट के साथ चौथे का उद्घाटन एक संत जी ने किया औेर शोक सभा आरंभ हो गई। पंडित जी परंपरानुसार गीता के कुछ श्लोकों, जीवन-मरण, आत्मा-परमात्मा तथा जीवन वृतांत एवं अपना प्रिय भजन सुनाकर अभी आत्मा को वैतरणी नदी पार करा ही रहे थे कि कई श्रद्धाजंलि प्रेमी उन्हें बार-बार घड़ी दिखाने लगे। पंडित जी की हालत शोकसभा में लोकसभा के स्पीकर की तरह हो गई। उन्होंने भी आत्मा को वैतरणी नदीे की मझधार में ही छोड़ा और मंच पर एक किनारे हो लिए। उधर, यमदूत भी अपनी नेक्स्ट डयूटी पर नेक्स्ट क्लाइंट के लिए निकल गए। आत्मीयता दिखाने वालों की लंबी फेहरिस्त एक एंकर के हाथ में थी। सबसे पहले, सबसे लेट आए शोककर्ता ने माइक काबू कर लिया, समझो ठीक-ठाक चल रहे किसान आंदोलन की तरह हाईजैक कर लिया। आरंभ में उन्होंने कृष्ण-अर्जुन संवादों से लेकर भावपूर्ण संवादों में सबको डुबो दिया। इन सज्जन ने वो समां बांधा, वो पत्थर को भी रुला देने वाले डायलॉग मारे, संस्मरण सुनाए कि जिनका दिवंगत आत्मा से कोई लेना-देना तक नहीं था, वे भी अपने-अपने रूमाल खोल के बैठ गए। महिलाएं सब से अधिक शोक प्रदर्शन में गिद्धानुमा बोलियां पा-पा के रोने-पीटने लगीं। एक-दूसरे की छातियां और पैर, ठेठ पंजाबी स्टाइल में पीटने लगीं।
परामनोविज्ञान में इसे पास्ट लाइफ रिग्रेशन और आने वाले भविष्य का दर्शन कराना कहा जाता है। इस धारा में बहकर हॉल में जमे शोक को सांझा करने आए लोग मुकंदी को भूलकर अपने-अपने दिवंगत और भावी निकट संबंधियों की स्वर्ग-नर्क की यात्रा की कल्पना करते ही भावुक हो गए। मर्मस्पर्शी रुलाउ वातावरण में खुद पंडित जी, साउंड सिस्टम और दरियां बिछाने वाले प्रोफैशनलों तक को भी संभालना पड़ा, जिनका यहां रोज का काम था।
ये सज्जन चालू रहे। मृतक के साथ बिताए गए अंतरंग क्षणों का बयान करते चले गए। कई फिल्मी गानों के मुखड़े- दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाते हैं कहां ? जाने वाले कभी नहीं आते-जाने वालों की याद आती है…चि_ी न कोई संदेश…कहां तुम चले गए…? सुना-सुना कर इमोशनल करने लगे। फिर, श्रोताओं को संभाल लेते- दिवंगत आत्मा कितनी पवित्र थी, कभी झूठ नहीं बोलते थे, बहुत सच्चे, ईमानदार थे, कभी किसी को धोखा तक नहीं दिया, जिससे पैसे उधार लिए, उसे अगले दिन चुका दिए, बहुत संस्कारी थे, किसी का दुख उनसे देखा नहीं जाता था, हर गरीब की मदद को तैयार रहते थे। कोरोना के वक्त उन्होंने कितने लंगर लगाए, कितने मास्क बांटे, कितने मजदूरों को ट्रांसपोर्ट अवेलेबल करवा के उनके घर रवाना किया, कितने फूड पैकेट बांटे…। आज मेरा दोस्त, मेरा हमदम हमारे बीच नहीं है। हर पार्टी का वक्ता, प्रवक्ता, अधिवक्ता था मेरा दोस्त, जबकि हकीकत में शोग्रस्त लोग उन्हें वक्ता की जगह ‘बकता’ कहते थे। कुछ ‘बख्ता’ कहते थे। अपनी भाषण कला का असर सामने देखते ही ये सज्जन और जोश में आ गए। बाहें लहरा-लहरा के कहने लगे-मैं सरकार से ये मांग करता हूं कि ऐसी शख्सियत को अगर पद्मश्री जीते जी नहीं दी गई तो कम से कम मरणोपरांत दी जाए। ये सुनते ही घर वाले शोक सभा में ही राष्ट्रपति भवन के सपने लेने लगे और उनके कुछ रिश्तेदार इस मरणोपरांत अलंकरण को आखें बंद करके अपने-अपने पसंदीदा चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट देखने लगे। कुछ रिश्तेदार ऐसे अलंकरणों से सुशोभित होने पर सरकारी सुख-सुविधाओं की ओर नजरें दौड़ाने लगे।
मुकंदी की आत्मा तब तक, जो न वैतरणी की रही, न परलोक की, वह भी सोचने लगी-साला मैं तो ऐवें ही मर गया। इतनी क्वालिटी मुझ में छुपी हुई थी…किसी ने मरने तक बताया ही नहीं। शोक स्पेशलिस्ट सज्जन यहीं नहीं रुके। बोले -इन्हें इंसाफ मिलना चाहिए। मेरे मित्र, भगवान उनकी आत्मा को शांति दे, किसान आंदोलन के जबरदस्त समर्थक थे। जब-जब उन्होंने देखा कि सरकार किसानों को कुचल रही है, उनका खून खौल उठता था। जैसे ही इन्होंने ट्रैक्टर उलटते देखा, आंसू गैस का धुआं देखा, भगदड़ देखी…टीवी देखते-देखते ही शहीद हो गए। मेरे दोस्तो! आज मैं सरकार से मांग करता हूं कि यह जालिम सरकार परिवार को एक करोड़ का मुआवजा दे। परिवार के कुछ निखट्टुओं को लगा, वे कौन बनेगा करोड़पति शो देख रहे हैं और उनके दिवंगत बुजुर्ग स्वर्ग से 2-2000 के नोट बरसा रहे हैं। इन बंधु की श्रद्धांजलि से शोकमग्न फेमिली से इन महाशय के मरने का स्टेटस भी चेंज हो गया। असल में बुजुर्ग इस जहां से अपनी जवानियों और बुढ़ापे की रंगीनियों की वजह से खर्च होकर रुख़्सत हुए थे लेकिन अब इस शोक सभा के कारण जरा इज्जत दार इमेज बनती लग रही थी। रोती-बिलखती पत्नी के चेहरे पर भी मुस्कान आ गई कि उसके बेवड़े खाविंद को शहीद का दर्जा मिल जाएगा। सुनने वालों की भी जोश में मुट्ठियां खुलकर ताली बजाने को खुलीं तो पंडित जी ने इशारा किया कि यह शोक सभा है, लोक सभा नहीं।
इन सज्जन को दिवंगत का नाम न पता था, न याद आ रहा था। अत: नाम जानने के उदे्श्य से, इन सुपर स्पीकर ने पीछे मुड़कर मंच पर रखी फोटो को देखने की कोशिश परंतु चित्र पर इतने फूल लद चुके थे कि उसमें दिवंगत के केवल टूटे हुए एक-दो दांत ही नजर आ रहे थे और नाम तो फूल-मालाओं में कहीं छिप गया था। फोटो की ओर उंगली दिखाते हुए वे यहीं नहीं रुके और बोले-शंभू प्रसाद की शहादत बेकार नहीं जाएगी। सभागार के अंत में बैठे शंभू प्रसाद, जो मोबाइल पर यूटयूब पर कुछ अपनी पसंद की वीडियो देखने में मग्न थे, अपना नाम अचानक सुनकर चौंके। एंकर ने समझा, ये भी पुष्पांजलि अर्पित करना चाहते हैं, जबकि ये खड़े होकर हाथ हिला-हिला कर यह बताने की कोशिश करने लगे कि मैं कायम हूं। काफी लोगों को पहली बार पता चला कि ये रस्म-क्रिया शंभू की है। कुछ महानुभाव ऐसे कार्यक्रमों में पहुंचते ही ऐसे समय हैं जब शो की आखिरी रील चल रही होती है, यानी पगड़ी की रस्म चल रही होती है। वे हाथ जोड़ कर मंद-मंद गति से चोर नजरों से इधर-उधर देखते हुए 10 का नोट और फूल अर्पित करके किसी बैठे हुए अनजान संबंधी को हाथ जोड़ते हुए यूटर्न लेकर सीधे चाय वाले टेबल पर पहुंच कर अपनी हाजिरी दर्ज करवाने से नहीं चूकते। इससे वक्त भी बचता है और एहसान भी बना रहता है कि फलां सज्जन हमारे चौथे पर आए थे, हमें भी उनके ऐसे उत्सव पर जाना चाहिए। इसे समाज में ‘व्यवहार’ कहा जाता है। तुम मेरे मरने पर आओ, मैं भी तुम्हारी बार ….जरूर आऊंगा!
गलती से जो नाम की मिस्टेक हो गई थी, उसे सुधारने के लिए, एक सज्जन मंच पर पीछे से इन भाषणकर्ता के पायजामे का पहुंचा खींच कर स्वर्गीय का ठीक नाम बताना चाहते थे लेकिन ये सज्जन नॉन स्टाप बोलते चले गए-आज मुझे कोई रोके नहीं, कोई टोके नहीं, आज मेरा दोस्त शंभू जिसे मैं मजाक में लंबू कहा कहता था, आज मुझ से बिछड़ गया है। मैं जानता हूं कि लोग ऐसी सभाओं में मेरी टांगें खींचते हैं, आज पायजामा खींचने जैसी नीच हरकत पर उतर आए हैं। इन महोदय के पेट का क्षेत्रफल, नाड़े से कुछ बड़ा था। उन्होंने एक हाथ से पायजामा कसकर थामा, दूसरे हाथ से माइक और फिर दोगुने जोश से शुरू हो गए- लंबू और मैं लंगोटिया यार थे। बचपन में गुल्ली-डंडा एक साथ खेला करते थे। बड़े होकर कभी वो किसी पार्टी में घुस जाते, किसी में मैं। हम दुश्मन भले ही रहे हों पर दोस्ती कभी नहीं तोड़ी…न अगले जन्म में तोड़़ेंगे। ईश्वर से प्रार्थना है कि शंभू प्रसाद जी को स्वर्ग में स्थान मिले। आज सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनके दिखाए रास्ते पर चलें। ओम् शांति…!! बड़ा लड़का परेशान हो रहा था कि मम्मी हमेशा बापू को डांटती रहती थी कि जिस रास्ते यानी पिंकी आंटी वाले रास्ते तुम चल रहे हो…बाज आ जाओ…!
इधर ऑरिजनल शंभू प्रसाद हाथ लहरा-लहरा के कहना चाहते थेे कि बाई गॉड मैं जिन्दा हूं और यहीं हूं। वे खड़े होते और लोग पकड़ के बिठा देते। आधे शोककर्ताओं को तो ठीक से मालूम ही नहीं था कि मरा कौेन है। कई ग्रुप के झुंड संचालकों…झुंडू प्रसादों ने अर्थात ग्रुप एडमिनों ने रस्म-क्रिया में आने का न्योता दे दिया और ‘आपने बुलाया और हम चले आए’ हो गया। माले मुफ्त दिले बेरहम। कोल्ड ड्रिंक तथा चाय-पानी के साथ-साथ कई भूले-बिसरे लोगों से भी मिलना हो जाता है।
वक्त इतना बीत गया कि बाकी शोक संदेश पढ़ने वाले, जुबानी बोलने वाले, श्लोकों का रट्टा लगाते रह गए और शोक सभा लूट गया कोई और। एंकर के पास बोलने वालों की लिस्ट बस लहराती रह गई ।शंभू प्रसाद मन ही मन सोचते रहे कि मेरी आरिजनल शोक सभा ऐसी ही हो, तो बाई गॉड मजा आ जाए। उन सज्जन ने भी तुरंत अपना कार्ड थमा दिया- कभी सेवा का मौका जरूर दें पर जरा एडवांस में अवश्य बता देना।
- मदन गुप्ता सपाटू, 458, सैक्टर-10, पंचकूला-134109 (हरियाणा) मो. 9815619620