अनलॉक चार के अगले दिन ही मोबाइल फोन पर जो मैसेज आया उसने लॉकडाउन के सारे दुखड़े एक मिनट में भुला दिए। छह महीने में मुंह गुलाब जामुन का टेस्ट भूल चुका था। बदन बंद-बंद सा लग रहा था। नागिन डांस करे और देखे एक मुद्द्त हो गई थी। जैसे ही मन आउटिंग को करता तो कभी बिग बी तो कभी कोई और टीवी से बाहर कूदते हुए डरा देते कि लॉकडाउन खत्म हुआ है- कोरोना नहीं…!
जैसे ही रेडियो लगाते, वो गाने सुनाते कम और डराते ज्यादा। ऐसे बताते मानो दरवाजे से निकले और कोरोना ने आपको झटका। किसी को फोन मिलाते तो वह पांच मिनट कोरोना का राग अलाप कर एक ही बात कहता कि जब तक बहुत जरुरी न हो, बाहर देखो तक नहीं। डर के मारे हमने सामने वाली खिड़की, जहां अक्सर चांद का टुकड़ा देखते ही सुनील दत्त बन जाते थे, वो एक्शन तक भूल गए। मोबाइल पर ही शगुन डालकर और घर का ही दाल-फुल्का खा के , वेबीनार पर ही कई पाणिग्रहण संस्कार निपटाए!
बस एक सुहानी शाम गुड ईवनिंग के ढेर सारे कट एंड फॉरवार्डिड संदेशों के बीच, फूलों के रंग-बिरंगे गुलदस्तों के साथ, एक दिल को बाग-बाग करने का संदेश आ गया। श्रीमती जी किचन सेे दौड़ती- भागती गाते हुई आई- चलो बुलावा आया है…वर्मा जी ने शादी पे बुलाया है। हमने भी एक गाने का मुखड़ा जड़ा- उनको अपने बेटे की शादी का ख्याल आया है…चलो हमको डिनर पे बुलाया है…। लग रहा था यह लव मैरिज अटकी पड़ी होगी और इस डर से कि कहीं एक दिन ठीक 8 बजे भाइयों और बहनों की आवाज कह दे कि कोरोना आउट ऑफ कंट्रोल हुआ जा रहा है और लॉकडाउन दोबारा घोषित हो रहा है, उनका बरखुर्दार कुंवारा ही न रह जाए और साहबजादे ने भी ‘मस्ट मैेरी टुडे’ का नारा लगाया होगा। इसीलिए यह इमरजेंसी मैरिज हो रही होगी।
खैर! हमारे लिए तो यह एक गोल्डन ओपोर्चुनिटी थी । आफिस टाइम के सूट, बूट, आसमानी शर्ट और टाई की ढुंढाई में पसीने-पसीने हो गए। ट्रंक, अटैचियां, अल्मारियां उल्टा डालीं और अंततः इकलौता सूट मिल गया। श्रीमती जी ने झट से धोबी से सब प्रेस-व्रेस करवा लिए, जूते हमने खुद डस्टर से चमका लिए, क्योंकि जूते पॉलिश किए एक मुदद्त हो चुकी थी। चप्पलों से ही काम चल जाता था। हम कुर्ते-पायजामे में और मैडम मैक्सी में। मार्च से सितंबर आ गया, ड्रै्स एक ही रही।फंक्शन में जाने के लिए आधा घंटा ही बचा था।
हमने सोचा ऐन टाइम पर ड्रैस पहनेंगे, ताकि करीज-वरीज बनी रहे। शर्ट तो किसी तरह फंस गई। टाई भी गलबंधन हो गई। जैसे ही पैंट को ऊपर करके देखने लगे तो पता चला कि इतने दिनों में कीड़ों ने उसके पिछवाड़े में छोटे-छोटे रोशनदान बना डाले हैं। हम घबरा गए, क्योंकि कोई बेमेल पैंट भी नहीं डाल सकते थे। श्रीमती जी ने हौसला बंधाया कि ये सब आपके कोट के पीछे छुप जाएगा, पहनो तो सही। अब दूसरी मुसीबत आन पड़ी। जब पैंट पहनने लगे तो उसने कमर के ऊपर आने से इंकार कर दिया। यों तो हम डेली वॉक पर जाते थे लेकिन श्रीमती जी की यूटयूब से नकल की गई रंग-बिरंगी रेसपियों से पेट का क्षेत्रफल कब बढ़ गया, इसका पता इसी दिन चला, वरना सब चापलूस दोस्त हमें हमेशा फिट एंड फाइन ही बताते रहे।
हम पेट और पैंट के द्वंद में फंस गए। किसी तरह पैंट चढ़ाई तो बैल्ट नाराज हो गई। आज हमें पायजामे की सादगी और उसके नाड़े पर गर्व महसूस हुआ कि दोनों आपको किसी भी उम्र और साइज में कैसे एडजस्ट करते रहते हैं। श्रीमती जी ने एक सुए से बैल्ट के आखिरी सिरे से आधा इंच पहले एक सुराख कर दिया। किसी तरह हम अपने आफिशियल सूट में फंसे लेकिन कोट के काज और बटन में इतना फासला हो गया कि समझौेते की कोई सूरत दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही थी। बूट तो पैरों में आ गए पर फीते बांधने और उंगलियों के बीच पी. ओ.के. जैसी स्थिति थी। पैर तो हमारे ही थे पर अपने ही हाथ वहां तक नहीं पहुंच पा रहे थे। बीच में पेट आड़े आ गया।
हमें अब चप्पलों की सादगी पर गुस्सा आया कि कोरोना काल ने कैसे हमारी आदतें बिगाड़ दी। जैसे-तैसे श्रीमती जी ने चरणवंदना करने के अंदाज में जूतों के फीते कस दिए। कमर पहले ही कस दी थी। साथ ही हिदायत दी कि खाने-पीने के चक्कर में ज्यादा इधर-उधर नाचना नहीं। हमने खुद से और कोट-पैंट से कंप्रोमाइज कर लिया और ‘लेट अस मार्च टू मैरिज’ का बिगुल बजा दिया।
उधर, श्रीमती के ब्लाउज से भी उनकी दुश्मनी भारत-चीन की तरह बढ़ गई। ब्लाउज ने एक सीमा तक आकर लाइन ऑफ कंट्रोल से आगे आने से मना कर दिया। अब मैक्सी में तो जाने से रहीं। हम तो जेैसे-तैसे निकल भी लेते लेकिन श्रीमती जी के लिए धर्म संकट आन पड़ा। उनके समकक्ष आस-पड़ोस में कोई महिला भी नहीं। साड़ी तो मिल जाती पर ब्लाउज ने सारा काम खराब कर दिया। काफी तिकड़में लड़ाने के बाद भी बात नहीं बन सकी। कभी हम खुद को और कभी मोबाइल के संदेश को ताकते रहे। उनकी शादी का कारवां गुजर गया और हम अपना कोट, उनका ब्लाउज देखते रहे । (व्यंग्य)
- मदन गुप्ता सपाटू, व्यंग्यकार एवं ज्योतिर्विद्, सैक्टर-10, पंचकूला (हरियाणा)
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