विचार-मंथनः मजहबी स्वतंत्रता के नाम पर आर्थिक युद्ध !

धर्म अथवा पंथ जब तक मानव के व्यक्तिगत जीवन का हिस्सा बनने तक सीमित रहे, वो उसकी आध्यात्मिक उन्नति का माध्यम बनकर उसमें एक सकारात्मक शक्ति का संचार करता है। जब वो मानव के व्यक्तिगत जीवन के दायरे से बाहर निकल कर समाज के सामूहिक आचरण का माध्यम बन जाता है तो वो समाज में एक सामूहिक शक्ति का संचार करता है लेकिन यह कहना कठिन होता है कि समाज की यह सामूहिक शक्ति उस समाज को सकारात्मकता की ओर ले जाएगी या फिर नकारात्मकता की ओर। शायद इसीलिए कार्ल मार्क्स ने धर्म को जनता की अफीम कहा था।

दरअसल, पिछले कुछ समय से मजहबी मान्यताओं के आधार पर विभिन्न उत्पादों का हलाल सर्टिफिकेशन राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा में है। हाल ही में योरोपीय महाद्वीप के देश बेल्जियम में हलाल मीट और कोशर मीट पर एक अदालती फैसला आया है। पशु अधिकारों को ध्यान में रखते हुए योरोपीय संघ की अदालत ने बिना बेहोश किए जानवरों को मारे जाने पर लगी रोक को बरकरार रखा है। इसका मतलब यह है कि बेल्जियम में किसी भी जानवर को मारने से पहले उसे बेहोश करना होगा, ताकि उसे कष्ट न हो। योरोपीय संघ की अदालत के इस फैसले ने योरोपीय संघ के अन्य देशों में भी इस प्रकार के कानून बनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। मजहबी स्वतंत्रता के नाम पर बेल्जियम के मुसलमान और यहूदी संगठन इस कानून का विरोध कर रहे हैं।

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राष्ट्रीय स्तर पर अगर बात करें तो यह चर्चा में इसलिए है कि अप्रैल 2020 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें कोविड महामारी के मद्देनजर हलाल मीट पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी। इसे कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि अदालत लोगों की भोजन करने की आदतों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। इसी से संबंधित ताजा मामला दक्षिण दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन के अंतर्गत आने वाले होटलों के लिए लागू किए गए एक नियम का है, जिसमें दिल्ली के ऐसे होटल या मीट की दुकान, जो दक्षिण दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन के अंतर्गत आते हैं, को अब हलाल या झटका का बोर्ड दुकान के बाहर लगाना अनिवार्य होगा।

दरअसल, एसडीएमसी की सिविक बॉडी की स्टैंडिंग कमेटी ने एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें लिखा है कि हिन्दू और सिख के लिए हलाल मीट खाना वर्जित है। इससे पहले क्रिसमस के दौरान केरल के ईसाइयों ने भी हलाल मांस के विरोध में प्रदर्शन किया था। इस मामले में क्रिश्चियन एसोसिएशन ऑफ चर्च के ऑक्सीलरी फॉर सोशल एक्शन ने ईसाइयों से एक अपील भी की थी, जिसमें हलाल मांस को उनके धार्मिक लोकाचार के खिलाफ होने के कारण इन्हें खाद्य पदार्थों के रूप में खरीदने से मना किया गया था।

मजहब के नाम पर जिस हलाल पर विश्वभर में हायतौबा मची हुई है, पहले थोड़ा उसे समझ लेते हैं। हलाल, दरअसल एक अरबी शब्द है, जिसका उपयोग क़ुरान में भोजन के रूप में स्वीकार करने योग्य वस्तुओं के लिए किया गया है। इस्लाम में आहार संबंधी कुछ नियम बताए गए हैं, जिन्हें हलाल कहा जाता है लेकिन इसका संबंध मुख्य रूप से मांसाहार से है। जिस पशु को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है, उसके वध की प्रक्रिया विशेष रूप से बताई गई है। इसी के चलते मुस्लिम देशों में सरकारें ही हलाल का सर्टिफिकेट देती हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जो मीट वहां परोसा जा रहा है वो उनकी मजहबी मान्यताओं के अनुरूप है।

हमारे देश में भी भारतीय रेल और विमानन सेवाओँ जैसे प्रतिष्ठानों से लेकर फाइव स्टार होटल तक हलाल सर्टिफिकेट हासिल करते हैं, जो यह सुनिश्चित करता है कि जो मांस परोसा जा रहा है वो हलाल है। भोजन परोसने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां तक इसी सर्टिफिकेट के साथ काम करती हैं लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे देश में यह सर्टिफिकेट सरकार द्वारा नहीं दिया जाता। दरअसल, भारत में अलग-अलग वस्तुओं के लिए अलग-अलग सर्टिफिकेट का प्रावधान है, जो उनकी गुणवत्ता सुनिश्चित करते हैं। जैसे औद्योगिक वस्तुओं के लिए ISI मार्क, कृषि उत्पादों के लिए एगमार्क, प्रॉसेस्ड फल उत्पाद जैसे जैम अचार के लिए एफपीओ, सोने के लिए हॉलमार्क, आदि लेकिन हलाल का सर्टिफिकेट भारत सरकार नहीं देती है। भारत में यह सर्टिफिकेट कुछ प्राइवेट संस्थान जैसे हलाल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, हलाल सर्टिफिकेशन सर्विसेज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, जमायत उलमा ए हिन्द हलाल ट्रस्ट आदि।

अभी तक देश से निर्यात होने वाले डिब्बाबंद मांस के लिए वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के तहत आने वाले खाद्य उत्पादन निर्यात विकास प्राधिकरण को हलाल प्रमाणपत्र देना पड़ता था, क्योंकि दुनिया के अधिकांश मुस्लिम देश हलाल मांसाहार ही आयात करते हैं लेकिन यह बात जितनी साधारण दिखाई दे रही है, उससे कहीं अधिक पेचीदा है। क्योंकि तथ्य यह बताते हैं कि जो बात मजहबी मान्यताओं के अनुसार पशु वध के तरीके (हलाल) से शुरू हुई थी, अब वो दवाइयों से लेकर सौंदर्य उत्पाद जैसे लिपस्टिक और शैम्पू, अस्पतालों से लेकर फाइव स्टार होटल, रियल एस्टेट से लेकर हलाल टूरिज्म और तो और आटा, मैदा, बेसन जैसे शाकाहारी उत्पादों तक के हलाल सर्टिफिकेशन पर पहुंच गई है। आयुर्वेदिक औषधियों के लिए भी हलाल सर्टिफिकेट! ऐसा क्यों है ? क्योंकि जो भी कंपनी अपना सामान मुस्लिम देशों को निर्यात करती हैं, उन्हें इन देशों को यह सर्टिफिकेट दिखाना आवश्यक होता है। अगर हलाल फूड मार्केट के आंकड़ों की बात करें तो यह वैश्विक स्तर पर 19% की है, जिसकी कीमत लगभग 2.5 ट्रिलियन $ बैठती है।

आज मुस्लिम देशों में हलाल सर्टिफिकेट उनकी जीवनशैली से जुड़ गया है। वे उस उत्पाद को नहीं खरीदते, जिस पर हलाल सर्टिफिकेट नहीं हो। हलाल सर्टिफिकेट वाले अस्पताल में इलाज, हलाल सर्टिफिकेट वाले कॉम्प्लेक्स में फ्लैट औऱ हलाल टूरिज्म पैकेज देने वाली एजेंसी से यात्रा। यहां तक कि हलाल की डेटिंग वेबसाइट।

अब प्रश्न उठता है कि उपर्युक्त तथ्यों के क्या मायने हैं। दरअसल, जो बात एक सर्टिफिकेट से शुरू होती है वो बहुत दूर तक जाती है। क्योंकि जब हलाल मांस की बात आती है तो स्वाभाविक रूप से उसे काटने की प्रक्रिया के चलते वो एक मुस्लिम के द्वारा ही कटा हुआ होना चाहिए। जाहिर है इसके परिणामस्वरूप जो हिन्दू इस कारोबार से जुड़े थे वो इस कारोबार से ही बाहर हो गए। इसी प्रकार जब हलाल सर्टिफिकेट मांस तक सीमित न होकर रेस्टोरेंट या फाइव स्टार होटल पर लागू होता है तो वहां परोसी जाने वाली हर चीज जैसे तेल, मसाले, चावल, दाल सबकुछ हलाल सर्टिफिकेट का होना चाहिए। और जब यह हलाल सर्टिफाइड मांसाहार रेल या विमानों में परोसा जाता है तो हिदुओं और सिखों जैसे गैर मुस्लिम मांसाहारियों को भी परोसा जाता है। ये गैर मुस्लिम, जिनकी धार्मिक मान्यताएं हलाल के विपरीत झटका मांस की इजाजत देती हैं, वो भी इसी का सेवन करने के लिए विवश हो जाते हैं लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात जो समझने वाली है वो यह कि इस हलाल सर्टिफिकेट को लेने के लिए भारी-भरकम रकम देनी पड़ती है, जो गैर सरकारी मुस्लिम संगठनों की झोली में जाती है।

मांस से आगे बढ़ कर चावल, आटा, दालों, कॉस्मेटिक जैसी वस्तुओं के हलाल सर्टिफिकेशन के कारण अब यह रकम धीरे-धीरे एक ऐसी समानांतर अर्थव्यवस्था का रूप लेती जा रही है, जिस पर किसी भी देश की सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है और इसलिए यह एक वैश्विक चिंता का विषय भी बनता जा रहा है। ऑस्ट्रेलियाई नेता जॉर्ज क्रिस्टेनसेन ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि हलाल अर्थव्यवस्था का पैसा आतंकवाद के काम में लिया जा सकता है। वहीं, अंतरराष्ट्रीय लेखक नसीम निकोलस ने अपनी पुस्तक “स्किन इन द गेम” में इसी विषय पर ” द मोस्ट इंटॉलरेंट विंस” (जो असहिष्णु होता है वो जीतता है) नाम का लेख लिखा है। इसमें उन्होंने यह बताया है कि अमरीका जैसे देश में मुस्लिम और यहूदियों की अल्पसंख्यक आबादी कैसे पूरे अमेरिका में हलाल मांसाहार की उपलब्धता मुमकिन करा देती है। अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के देश इस बात को समझ चुके हैं कि मजहबी मान्यताओं के नाम पर हलाल सर्टिफिकेट के जरिए एक आर्थिक युद्ध की आधारशिला रखी जा रही है, जिसे हलालोनोमिक्स भी कहा जा रहा है।

यही कारण है कि ऑस्ट्रेलिया की दो बड़ी मल्टी नेशनल कंपनियों ने अपने उत्पादों के लिए हलाल सर्टिफिकेट लेने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि उनके उत्पाद शुद्ध शाकाहारी होते हैं। इसलिए उन्हें हलाल सर्टिफिकेशन की कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में राष्ट्रवाद की बात करने वाले अपने शाकाहारी औषधीय उत्पादों का हलाल सर्टिफिकेशन करवाने के लिए मुस्लिम संगठनों को भारी-भरकम फीस देते हैं। जब कारोबारी नफा-नुकसान के आगे देशभक्ति भी कमजोर पड़ जाती है तो फिर एक आम आदमी की बिसात ही क्या ? आज के युग में जब युद्ध हथियारों के बजाय अर्थव्यवस्था के सहारे खेला जाता है तो योद्धा देश की सेना नहीं देश का हर नागरिक होता है। इसलिए हलाल के नाम पर एक आर्थिक युद्ध की घोषणा तो की जा चुकी है, चुनाव अब आपको करना है कि इस युद्ध में सैनिक बनना है या फिर मूकदर्शक।

  • डॉ. नीलम महेंद्र (लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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