विचार-मंथनः कोरोना ने मानव को नहीं, मानवता को परास्त किया

शहर एक-एक सांस के लिए मोहताज था, जब एक क्षण की सांस भी मौत को जिंदगी से दूर धकेलने के लिए बहुत थी, तब इन नेताओं के लिए तीन घंटे का फोटो सेशन भी कम पड़ रहा था। त्राहिमाम के इस काल में संवेदनहीनता की पराकाष्ठा यहीं तक सीमित नहीं रही। कभी सरकारी अस्पताल से वैक्सीन चोरी होने की खबर आई तो कभी कोरोना के इलाज में प्रयुक्त होने वाली दवाई रेमडेसिविर चोरी होने की। कभी आम लोगों द्वारा ऑक्सीजन सिलेंडर लूटने की खबरें आईं तो कभी प्रशासन और सरकार की नाक के नीचे 750 से 1000 रूपए का इंजेक्शन 18000 तक में बिका। पेरासीटामोल जैसी गोली भी इस महामारी के दौर में 100 रूपए में बेची गईं। हालात ये हो गए कि विटामिन सी की गोली से लेकर नींबू तक के दाम थोक में वसूले गए।

इस समाज का हिस्सा होने पर हम शर्मिंदा हैं’, यह बात बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से महाराष्ट्र में कोरोना के हालात पर कही है लेकिन कोरोना से उपजी विकट स्थिति से महाराष्ट्र ही नहीं पूरा देश जूझ रहा है। कोरोना की जिस लड़ाई को लग रहा था कि हम जीत ही गए, उसमें अचानक हम कमजोर पड़ गए।

कोरोना की शुरूआत में जब पूरे विश्व को आशंका थी कि अपने सीमित संसाधनों और विशाल जनसंख्या के कारण कोरोना भारत में त्राहिमाम मचा देगा, तब हमने अपनी सूझ-बूझ से महामारी को अपने यहां काबू में करके सम्पूर्ण विश्व को चौंका दिया था। रातों-रात ट्रेनों तक में अस्थाई कोविड अस्पतालों औऱ जांच लैब का निर्माण करने से लेकर पीपीई किट, वेंटिलेटर, सेनेटाइजर और मास्क का निर्यात करने तक भारत ने कोविड से लड़ाई जीतने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

सबसे बड़ी बात यह थी कि भारत इतने पर नहीं रूका। भारत ने कोरोना के साथ इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने के लिए वैक्सीन का निर्माण भी कर लिया था। लगने लगा था कि कोरोना से इस लड़ाई में हम बहुत आगे निकल आए हैं लेकिन फिर अचानक से क्या हुआ कि परिस्थितियां हमारे हाथ से फिसलती गईं और हम हार गए? एक देश के रूप में, एक सभ्यता के रूप में, एक सरकार के रूप में, एक प्रशासनिक तंत्र के रूप में।

आज देश जिस स्थिति से गुजऱ रहा है वो कम से कम कोरोना की दूसरी लहर में तो स्वीकार नहीं हो सकती। हां, अगर कोरोना की पहली लहर में यह सब होता तो एक बार को समझा जा सकता था कि देश इन अप्रत्याशित परिस्थितियों के लिए तैयार ही नहीं था लेकिन आज ? कहां गया वो इंफ्रास्ट्रक्चर, जो कोरोना की पहली लहर में खड़ा किया गया था ? कहां गए वो कोविड अस्पताल ? कहां गए वो बड़े-बड़े दावे ? जब वैज्ञानिकों ने पहले से ही कोविड की दूसरी लहर की चेतावनी दे दी थी तो यह लापरवाही कैसे हो गई ? आज अचानक देश बेड और ऑक्सीजन की कमी का सामना क्यों कर रहा है ? वो देश, जिसकी दुनियाभर में फार्मेसी के क्षेत्र में 60 प्रतिशत से अधिक की हिस्सेदारी है, कोरोना में इस्तेमाल होने वाली दवाओं की किल्लत से क्यों जूझ रहा है ? अधिकांश राज्य सरकारें औऱ प्रशासन एक वायरस के आगे बौने क्यों दिखाई पड़ रहे हैं ?

दुर्भाग्य यह है कि बात प्रशासन और सरकारों के एक वायरस के आगे बेबस होने तक ही सीमित नहीं है, ये जमाखोरों और कालाबाजारी करने वालों के आगे भी बेबस नजर आ रहे हैं। देश के जो वर्तमान हालात हैं, उनमें केवल स्वास्थ्य व्यवस्थाएं ही कठघरे में नहीं हैं, बल्कि प्रशासन और नेता भी कठघरे में हैं।

इसे क्या कहिएगा कि जब मध्य प्रदेश के इंदौर में कोरोना के मरीज ऑक्सीजन की कमी से अस्पताल में दम तोड़ रहे थे तो मानवता को ताक पर रखकर हमारे नेताओं में 30 टन ऑक्सीजन लाने वाले टैंकर के साथ फोटो खिंचवाने की होड़ लग जाती है। जब इंदौर शहर एक-एक सांस के लिए मोहताज था, जब एक क्षण की सांस भी मौत को जिंदगी से दूर धकेलने के लिए बहुत थी, तब इन नेताओं के लिए तीन घंटे का फोटो सेशन भी कम पड़ रहा था। त्राहिमाम के इस काल में संवेदनहीनता की पराकाष्ठा यहीं तक सीमित नहीं रही। कभी सरकारी अस्पताल से वैक्सीन चोरी होने की खबर आई तो कभी कोरोना के इलाज में प्रयुक्त होने वाली दवाई रेमडेसिविर चोरी होने की। कभी आम लोगों द्वारा ऑक्सीजन सिलेंडर लूटने की खबरें आईं तो कभी प्रशासन और सरकार की नाक के नीचे 750 से 1000 रुपए का इंजेक्शन 18000 तक में बिका। पेरासीटामोल जैसी गोली भी इस महामारी के दौर में 100 रूपए में बेची गईं। हालात ये हो गए कि विटामिन सी की गोली से लेकर नींबू तक के दाम थोक में वसूले गए।

कालाबाजारी करने वालों के लिए तो जैसे कोरोनाकाल आपदा में अवसर बनकर आया। कुल मिलाकर जिसे मौका मिला, सामने वाले की मजबूरी का फायदा सबने उठाया। क्या ये वो ही देश है, जो कोरोना की पहली लहर में एकजुट था ? क्या ये वो ही देश है, जिसमें पिछली बार करोड़ों हाथ लोगों की मदद के लिए आगे आए थे ? और जब ऐसे देश में प्राइवेट अस्पतालों में कोविड के इलाज के बिल, जो लाखों में बनता है, एक परिवार को अपनी जीवनभर की कमाई और किसी अपने की जिंदगी में से एक को चुनने के लिए विवश होना पड़ता है तो उस समय वक्त भी ठहर जाता है।

क्योंकि एक तरफ भावनाएं उफान पर होती हैं तो दूसरी तरफ वो संभवत: दम तोड़ चुकी होती हैं। और ऐसे संवेदनशील दौर में कुछ घटनाएं ऐसी भी सामने आती हैं, जो भीतर तक झंझोर जाती हैं। नासिक के एक अस्पताल में जब ऑक्सीजन टैंकर लीक होने से ऑक्सीजन की सप्लाई में रुकावट आई और ऑक्सीजन सपोर्ट वाले मरीजों की हालत बिगडऩे लगी तो जीवित मरीजों के परिजनों में दम तोड़ चुके मरीजों के ऑक्सीजन सिलेंडर लूटने की होड़ लग गई। कुछ मरीजों के परिजन मर चुके लोगों के शरीर से ऑक्सीजन सिलेंडर निकाल कर अपनों के शरीर में लगा रहे थे तो कुछ मरीज खुद ही लगाने की कोशिश कर रहे थे। जिंदगी और मौत के बीच का फासला मिटाने के लिए जब इंसानियत का कत्ल करना इंसान की मजबूरी बन जाए तो दोष किसे दें ? स्वास्थ्य सेवाओं को ? परिस्थितियों को ? सरकार को ? प्रशासन को ? या फिर कोरोनाकाल को ?

दरअसल, इस कोरोनाकाल ने सिर्फ हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाओं की सच्चाई को ही उजागर नहीं किया है, बल्कि दम तोड़ती मानवीय संवेदनाओं का सत्य भी समाज के सामने बेनकाब कर दिया है। समय आ गया है कि हम इस काल से सबक लें। एक व्यक्ति के तौर पर ही नहीं, बल्कि एक समाज के तौर पर एकजुट होकर मानवता की रक्षा के लिए आगे आएं। आखिर यही तो एक सभ्य समाज की पहचान होती है। चंद मु_ीभर लोगों का लालच मानवीय मूल्यों पर हावी नहीं हो सकता। जिस प्रकार पिछली बार देशभर की स्वयंसेवी संस्थाओं से लेकर गली-मोहल्लों और गांवों तक में हर व्यक्ति एक योद्धा बना हुआ था, इस बार भी वो ही जज्बा लाना होगा और मानवता को आगे आना होगा, संवेदनाओं को जीवित रखने के लिए। अभी हम थक नहीं सकते, रुक नहीं सकते, अभी हमें एक होकर काफी लंबा सफर तय करना है। तभी हम सिर्फ कोरोना से ही नहीं जीतेंगे, बल्कि मानवता की भी रक्षा कर सकेंगे।

  • डॉ. नीलम महेंद्र (लेखिका वरिष्ठ स्तम्भकार हैं)
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