घोटाले चुनावी मौसम में ही सामने आते हैं और फिर पांच साल के लिए लुप्त हो जाते हैं
पश्चिम बंगाल में चुनाव की औपचारिक घोषणा के साथ ही राजनीतिक पारा भी उफान पर पहुंच गया है। देखा जाए तो चुनाव किसी भी लोकतंत्र की आत्मा होते हैं। सैद्धांतिक रूप से तो चुनावों को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की नींव को मजबूती प्रदान करते हैं लेकिन जब इन्हीं चुनावों के दौरान हिंसक घटनाएं सामने आती हैं, जिनमें लोगों की जान तक दांव पर लग जाती हो तो प्रश्न चिह्न केवल कानून-व्यवस्था पर ही नहीं लगता, बल्कि लोकतंत्र भी घायल होता है।
वैसे तो पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान हिंसा का इतिहास काफी पुराना है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े इस बात को तथ्यात्मक तरीके से प्रमाणित भी करते हैं। इनके अनुसार 2016 में बंगाल में राजनीतिक हिंसा की 91 घटनाएं हुईं, जिनमें 206 लोग शिकार हुए। इससे पहले 2015 में राजनीतिक हिंसा की 131 घटनाएं दर्ज की गईं, जिनके शिकार 184 लोग हुए थे। वहीं, गृह मंत्रालय के ताजा आंकड़ों की बात करें तो 2017 में बंगाल में 509 राजनीतिक हिंसा की घटनाएं हुईं थीं और 2018 में यह आंकड़ा 1035 तक पहुंच गया था।
इससे पहले 1997 में तत्कालीन वामदल की सरकार के गृह मंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य ने बाकायदा विधानसभा में यह जानकारी दी थी कि वर्ष 1977 से 1996 तक पश्चिम बंगाल में 28,000 लोग राजनीतिक हिंसा में मारे गए थे। निसंदेह यह आंकड़े पश्चिम बंगाल की राजनीति का कुत्सित चेहरा प्रस्तुत करते हैं।
पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल का रक्तरंजित इतिहास उसकी ‘शोनार बांग्ला’ की छवि, जो कि रबिन्द्रनाथ टैगोर और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जैसी महान विभूतियों की देन है, उसे भी धूमिल कर रहा है। बंगाल की राजनीति वर्तमान में शायद अपने इतिहास के सबसे दयनीय दौर से गुजऱ रही है, जहां वामदलों की रक्तरंजित राजनीति को उखाड़ कर एक स्वच्छ राजनीति की शुरुआत के नाम पर जो तृणमूल सत्ता में आई थी आज सत्ता बचाने के लिए खुद उस पर रक्तपिपासु राजनीति करने के आरोप लग रहे हैं।
हाल के लोकसभा चुनावों में भाजपा का वोट प्रतिशत बढऩे के साथ ही राज्य में हिंसा के आंकड़े भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं। चाहे वो भाजपा के विभिन्न रोड शो के दौरान हिंसा की घटनाएं हों या उसकी परिवर्तन यात्रा को रोकने की कोशिश हो या फिर जेपी नड्डा के काफिले पर पथराव हो। यही कारण है कि चुनाव आयुक्त को कहना पड़ा कि बंगाल में जो परिस्थितियां बन रही हैं उससे यहां पर शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव कराना चुनाव आयोग के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चुनाव आयोग इस बार 2019 के लोकसभा चुनावों की अपेक्षा 25 फीसदी अधिक सुरक्षा कर्मियों की तैनाती करने पर विचार कर रहा है लेकिन इस चुनावी मौसम में बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य पर घोटालों के बादल भी उभरने लगे हैं, जो कितना बरसेंगे यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन वर्तमान में उनकी गर्जना तो देशभर में सुनाई दे रही है।
दरअसल, केंद्रीय जांच ब्यूरो ने राज्य में कोयला चोरी और अवैध खनन के मामले में मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के भतीजे और टीएमसी संसद अभिषेक बैनर्जी की पत्नी रुजीरा बैनर्जी और उनकी साली को पूछताछ के लिए नोटिस भेजा है। इससे कुछ दिन पहले शारदा चिटफंड घोटाला, जिसमें देश के पूर्व वित्त मंत्री चिदम्बरम और खुद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री पर आरोप लगे थे, में सीबीआई ने दिसंबर 2020 में सुप्रीम कोर्ट में एक अवमानना याचिका दायर की थी। इसके अनुसार बंगाल के मुख्यमंत्री राहत कोष से तारा टीवी को नियमित रूप से 23 महीने तक भुगतान किया गया। कथित तौर पर यह राशि मीडिया कर्मियों के वेतन के भुगतान के लिए दी गई।
गौरतलब है कि जांच के दौरान तारा टीवी के शारदा ग्रुप ऑफ कम्पनीज का हिस्सा होने की बात सामने आई थी। सीबीआई का कहना है कि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री राहत कोष से तारा टीवी कर्मचारी कल्याण संघ को कुल 6.21 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया था। इससे कुछ समय पहले या यूं कहा जाए कि 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले भी इसी शारदा घोटाले की जांच को लेकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी और केंद्र सरकार आमने-सामने थीं।
वैसे भारत जैसे देश में घोटाले होना कोई नई बात नहीं है और न ही चुनावी मौसम में घोटालों के पिटारे खुलना। ऐसे संयोग इस देश के आम आदमी ने पहले भी देखे हैं। चाहे वो रॉबर्ट वाड्रा के जमीन और मनी लॉन्ड्रिंग घोटाले हों या फिर सोनिया गांधी और कांग्रेस नेताओं के नेशनल हेराल्ड जैसे केस हों या यूपी में अवैध खनन के मामले में अखिलेश यादव और या फिर स्मारक घोटाले में मायावती पर ईडी की कार्रवाई। अधिकांश संयोग कुछ ऐसा ही बना कि चुनावी मौसम में ही ये सामने आते हैं और फिर पांच साल के लिए लुप्त हो जाते हैं।
देश की राजनीति अब उस दौर से गुजर रही है जब देश के आम आदमी को यह महसूस होने लगा है कि हिंसा और घोटाले चुनावी हथियार बनकर रह गए हैं और उसके पास इनमें से किसी का भी मुकाबला करने का सामथ्र्य नहीं है। क्योंकि जब तक तय समय सीमा के भीतर निष्पक्ष जांच के द्वारा इन घोटालों के बादलों पर से पर्दा नहीं उठाता, वो केवल चुनावों के दौरान विपक्षी दल की हिंसा के प्रतिउत्तर में गरजने के लिए सामने आते रहेंगे, बंगाल हो या बिहार या फिर कोई अन्य राज्य।
अगर बंगाल की ही बात करें तो एक तरफ चुनावों के पहले सामने आने वाले घोटालों से राज्य की मुख्यमंत्री और उनका कुनबा सवालों के घेरे में है। वहीं जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं वहां सत्तारूढ़ दल द्वारा सत्ता बचाने और भाजपा द्वारा सत्ता हासिल करने के उद्देश्य से दोनों दलों के बीच होने वाली राजनीतिक हिंसा के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं लेकिन सत्ता बचाने और हासिल करने की इस उठापटक के बीच राजनीतिक दलों को यह समझ लेना चाहिए कि आज का वोटर इतना नासमझ भी नहीं है, जो इन घोटालों और हिंसा के बीच की रेखाओं को न पढ़ सके। खास तौर पर तब जब इन परिस्थितियों में चुनावों के दौरान बोले जाने वाले ‘आर नोई अन्याय’ (और नहीं अन्याय) या फिर ‘कृष्ण कृष्ण हरे हरे, पद्म (कमल) फूल खिले घरे घरे’ या बांग्ला ‘निजेर मेयकेई चाए’ ( बंगाल अपनी बेटी को चाहता है) जैसे शब्द कभी ‘नारों’ की दहलीज पार करके यथार्थ में परिवर्तित नहीं होते। इसलिए ‘लोकतंत्र’ तो सही मायनों में तभी मजबूत होगा जब चुनावी मौसम में घोटाले सिर्फ सामने ही नहीं आएंगे, बल्कि उसके असली दोषी सजा भी पाएंगे।
- डॉ. नीलम महेंद्र। (लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)