किताबों में लिखा है
मन की सुनो
मन की कहो
मन की करो।
की थी एक बार
मैंने भी मन की,
मन की लिखी थी
तो शब्द रूठ गए,
थोड़ा सा सच बोला
तो अपने भूल गए
ज़रा सी आवाज़ उठाईं
तो रिश्ते टूट गए।
मौन रही जब तक
सबने कमज़ोर माना,
निशब्द रही तो
गूंगी जाना।
पर अब नहीं,
अब नहीं जी सकती
दोहरी ज़िंदगी,
नहीं लगा सकती नकाब,
नहीं करना अब दिखावा,
नहीं ओढ़नी
चापलूसी की दीवार,
नहीं जीना, जीवन बेकार
बनना है मुझे यथार्थ
बनना है…………..।
- डॉ. प्रज्ञा शारदा
चंडीगढ़।
9815001468