मैं यह तो नहीं जानती,
सच कहते किसे हैं ?
जो मेरा सच है,
वो तेरा झूठ बना है।
मैं यह भी नहीं जानती,
मासूमियत है क्या ?
बस बेझिझक कह दूं,
तो शातिर नहीं होती।
मैं बहकी हूं ?
या बहकाई गई हूं ?
नासमझ हूूं जरूर,
बेवकूफ नहीं हूं।
जानती हूं, पर नहीं,
फरेब से गाफिल,
जो तेरी कम जफऱ्ी है,
मेरी सच्चाई नहीं है।
कब तक बहलाओगे,
परियों के किस्सों से,
तुम सदा मोमिन और
मैं शैतान नहीं हूं।
जब सामने आ ही गया,
है तेरा हंसी चेहरा,
फिर पर्दे का लिहाज हो,
परवाह किसे है ?
बिल्ली को देखकर,
आंख मूंद ली हमने,
शफा करे या सफा,
अब उसकी रज़ा है।
- स्मिता सेठी, निदेशक, समाज कल्याण विभाग, जम्मू।