कोशिश तो बहुत की मैंने
मोहब्बत भी बहुत निभाई
खुद से बहुत किया झगड़ा
चुप रही कुछ बोल न पाई
सुनती रही चुपचाप सदा
कभी आवाज नहीं उठाई
इसीलिए अच्छी कहलाई।
कहलाई मैं बुरी तभी
ज्यों ही थी आवाज उठाई
क्या करती इज्जत थी प्यारी
आत्म सम्मान से भरी खुमारी
गिरगिट से बदलते रंग
बेगैरतों के पाखंड
मेरी गैरत भुला न पाई
उनके झूठे वादे कसमें
भीतर अपने उतार न पाई
मैं रिश्ते निभा न पाई।
छलते रहे जो मेरे बनकर
मुझी को देते रहे बुराई
न था कोई लिहाज़ बड़ों का
उधेड़ी हर जख्म की तुरपाई
परखना नहीं था मुझे किसी को
दूरी थी इसलिए बनाई
मैं रिश्ते निभा न पाई।
वक्त तो आता-जाता रहता
आज इसका कल उसका होगा
आने वाला वक्त कहेगा
कौन किसी का कितना होगा
मुझमें थी खुद्दारी आई
मैं रिश्ते निभा न पाई।
- डॉ. प्रज्ञा शारदा, चंडीगढ़।