प्रभु की इच्छा को सर्वोपरि मानना ही शाश्वत आनंद की प्राप्ति: सत्गुरु माता सुदीक्षा जी महाराज

CHANDIGARH: ”शाश्वत आनंद की निरोल अवस्था को निरंतर कायम रखने के लिए प्रभु इच्छा को सर्वोपरी मानना होगा तभी भक्तिमार्ग पर चलते हुए आनंद की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है।” उक्त उद्गार सत्गुरू माता सुदीक्षा जी महाराज ने महाराष्ट्र के 55वें वार्षिक निरंकारी संत समागम के समापन पर श्रद्धालुओं को सम्बोधित करते हुए व्यक्त किए।

सत्गुरू माता जी के आशीर्वाद के साथ ही इस तीन दिवसीय संत समागम का सफलतापूर्वक समापन हुआ। समागम का सीधा प्रसारण मुंबई के चेम्बूर स्थित संत निरंकारी सत्संग भवन से मिशन की वेबसाईट एवं साधना टी.वी. चैनल पर किया गया जिसका आनन्द विश्वभर के लाखों श्रद्धालु भक्तों ने प्राप्त किया।

सत्गुरू माता जी ने आनंद की अवस्था पर प्रकाश डालते हुए कहा कि जब हम इस निरंकार प्रभु परमात्मा से जुड़ जाते है तब भक्ति का एक ऐसा रंग हम पर चढ़ता है कि सदैव ही आनंद की अनुभूति प्राप्त होती है। इस आनंद में भक्त इस प्रकार से तल्लीन रहता है कि फिर किसी के बुरे शब्दों या व्यवहार का उस पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता क्योंकि वह भक्ति द्वारा आनंद की अवस्था को प्राप्त कर चुका होता है।

एक रस रहने की अवस्था जीवन में तभी संभव होती है जब हम इस निरंकार से पूर्णत: जुड़ जाते हैं। एक लोकोक्ति के माध्यम द्वारा जीवन की परिस्थिति का वर्णन करते हुए सत्गुरू माता जी ने कहा कि दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करें न कोई अर्थात् दुख की स्थिति में तो सभी ईश्वर का स्मरण करते है किन्तु सुख में वह शुकराने का भाव प्रकट करना भूल जाते हैं। सुख एवं दुख तो जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं जिनका जीवन में आना निश्चित है किन्तु भक्त जब भक्ति के रंग मे होता है तब हर पल आनंद का अनुभव करते हुए इस दातार की रज़ा में रहकर एक सकारात्मक दृष्टिकोण को अपना लेता है। फिर दुख की स्थिति आने पर भी वह दुखी नहीं होता।

महात्मा गौतम बुद्ध जी के जीवन में घटित एक घटना का वर्णन करते हुए सत्गुरू माता जी ने कहा कि एक व्यक्ति जब उनके ऊपर थूक कर चला गया तो उन्होंने अपने शिष्यों को यही कहा कि हमारा इसके साथ कोई पुराना खाता होगाय उसने अपना काम किया और शायद यह खाता यहां पर समाप्त हो गया। उस व्यक्ति का ऐसा दुव्र्यवहार भी उनके आनंद एवं मन की शांति को अस्थिर नहीं कर पाया। तो कहने का भाव केवल यही कि हमें भी स्वयं को निरंकार प्रभु के साथ जोड़कर आत्मसार की स्थिति में रहते हुए, सकारात्मक दृष्टिकोण को अपनाना है। इसके लिए दृढ़ विश्वासी संतों का संग एवं सेवा, सुमिरन, सत्संग का आधार लेते हुए प्रतिपल मन से इस निरंकार प्रभु के साथ जुड़ जाना ही भक्ति है जिससे कि आनंद की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है।

विश्वास, भक्ति, आनंद तीनों को जीवन में समान रूप से जिया जा सकता है यह नहीं कि पहले भक्ति में परिपक्व होना है फिर विश्वास में और तब जाकर आनंद की अवस्था प्राप्त होगी। भक्त को तो अपने जीवन में इन तीनों को समान रूप से लेकर चलना होगा। यह किसी प्रकार का कोई खेल नहीं की पहला चरण पार किया तो फिर दूसरा चरण। यह तो जीवन का एक उद्देश्य है कि जिसमें ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित होकर ही भक्ति की जा सकती है और तभी सही मायनों में आनंद की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है।

बहुभाषी कवि सम्मेलन

समागम के तीसरे दिन का मुख्य आकर्षण एक ‘बहुभाषी कवि सम्मेलनÓ रहा जिसका शीर्षक – ‘श्रद्धा भक्ति विश्वास रहे, मन में आनंद का वास रहेÓ था। इस विषय पर मराठी, हिंदी, पंजाबी, कोंकणी, अहिराणी, भोजपुरी एवं गुजराती आदि भाषाओं में कुल 18 कवियों ने कविताओं के माध्यम द्वारा अपनी भावनाओं को व्यक्त किया।

इसके अतिरिक्त समागम के तीनों दिन विभिन्न भाषाओं में वक्ताओं द्वारा अपने विचारों का व्याख्यान, गीत, भजन, कविता आदि विधाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया गया जिसमे अनेकता में एकता का सुंदर दृश्य एवं वसुधैव कुटुम्बकम की अनूठी छवि दर्शायी गयी।

संत समागम के समापन पर सत्गुरू माता जी के दिव्य प्रवचनों द्वारा सभी श्रद्धालुओं ने विश्वास भक्ति आनंद की अनुभूति प्राप्त की। साथ ही स्वयं को इस निरंकार से हर पल आत्मसार पाया जो इस संत समागम का मूल उद्देश्य था।

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