आज की कविताः मैं ही हूं, मैं ही तो हूं…

जब कभी आभास हुआ है,भीड़ में तन्हा होने का,बहलाया है कह के खुद को,मैं ही हूं, मैं ही तो हूं। जब कभी हताश हुआ मन,असफल प्रयास के होने पर,बहलाया है कह के खुद को,मैं ही हूं, मैं ही तो हूं। जब कभी टूटा है यह दिल,अपनों के अपशब्दों से,बहलाया है कह के खुद को,मैं ही हूं […]

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आज की कविताः अनेकता में एकता-हिन्द की विशेषता

एकता चिल्लाई इक दिनसुनो-सुनो मेरी बातनहीं रहोगे मिलजुल करतो शत्रु देंगे मात। मैं तो राष्ट्र हितैषी हूंसुनो सभी मेरी बातयदि करोगे भक्ति मेरीसदा मैं दूंगी साथ। राष्ट्र के हर मानव से कह दोकरे मेरा सम्मानमैं जिताऊंगी तुम्हेंइस बात का रखना ध्यान। राष्ट्र के हित के लिएमुझे कवच बनाओसाधना से मेरी तुममुझको साध जाओ। एकता में

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आज की कविताः सुनो, कुछ यादें भेजी हैं…

सुनो,हवा के साथ कुछ दुआएं भेजी हैं,मर्तबान में रखना,और हर रोज थोड़ी चखना,कुछ नाश्ते में,खाने के साथ भी,मुरब्बे की तरहबहुत फायदा करेंगी। सुनो,बारिश में घोलकर कुछ यादें भेजी हैं,जब कभी अकेलेउदास हो जाओ,शरबत की चंद बूंदों मेंमिला के पीना,या लस्सी के गिलास मेंभर के गटकना,तरोताजा कर देंगीऔर खुशी से भर देंगी। सुनो,माला में पिरो कर

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महिला काव्य मंच की ऑनलाइन काव्य गोष्ठी में जुटीं चंडीगढ़ ट्राइसिटी की कवियत्रियां

CHANDIGARH: साहित्यकार नरेश नाज द्वारा स्थापित महिला काव्य मंच की चंडीगढ़ इकाई ने ऑनलाइन काव्य गोष्ठी का आयोजन किया। इस कार्यक्रम का उदघाटन मुख्य अतिथि महिला काव्य मंच की अध्यक्ष सुश्री मधु मधुमन एवं विशिष्ट अतिथि राष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक मंच हरियाणा के संरक्षक गणेश दत्त ने किया। महिला काव्य चंडीगढ़ इकाई की अध्यक्ष श्रीमती संगीता

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आज की कविता: मैं नहीं जानती…

मैं यह तो नहीं जानती,सच कहते किसे हैं ?जो मेरा सच है,वो तेरा झूठ बना है। मैं यह भी नहीं जानती,मासूमियत है क्या ?बस बेझिझक कह दूं,तो शातिर नहीं होती। मैं बहकी हूं ?या बहकाई  गई हूं ?नासमझ हूूं जरूर,बेवकूफ  नहीं हूं। जानती हूं, पर नहीं,फरेब से गाफिल,जो तेरी कम जफऱ्ी है,मेरी सच्चाई नहीं है।

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उमंग अभिव्यक्ति मंच की काव्य गोष्ठी में ऑनलाइन जुटीं कई रचनाकार, मां की महिमा का किया गुणगान

PANCHKULA: उमंग अभिव्यक्ति मंच पंचकूला ने मातृ दिवस के उपलक्ष्य में ऑनलाइन काव्य गोष्ठी का आयोजन किया और पर्यावरण को बचाने के लिए खूबसूरत स्लोगन भी दिया। मंच की फाउंडर श्रीमती नीलम त्रिखा व शिखा श्याम राणा ने बताया कि इस काव्य गोष्ठी में ट्राइसिटी के अलावा देश के कई हिस्सों से रचनाकारों ने भाग

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आज की कविताः जीवन मूल्य

हर बात तुम्हारे साथ थी जो,हर बात हमारे साथ भी है,कुछ पल भर को ठहर गई ,कुछ बची खुची भी निकल गई। जिंदगी तुम नाजुक हो,पर मै भी पत्थरदिल तो नहीं,तुम सहम सहम के कटती हो ,मैं ठिठकूं ठहरूं पर रुकूं नहीं। मैं हर ठोकर पर फिसल रही,तुम हर ठोकर पर संभल रही,मैं कंकर ,पत्थर,

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आज की कविताः मेरे दिल का ख्याल

कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है,कि- हम औरतों को भीये इज़ाज़त होती किघूम सकें टोली में,पी सकें चाय कुल्हड़ मेंकिसी सड़क के किनारेचाय की दुकान पर,खड़े होकर बतियाएं, मजे उड़ाएंउंगली में बीड़ी दबालंबे-लंबे कश लेकरधुएं के छल्ले उड़ाएंऔर लंबी सांस लेकर कहेंयार-आज आफिस की मीटिंग मेंनए प्रोजेक्ट ने बहस पकड़ी थी,काम बहुत था,खड़े-खड़े टांगें

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आज की कविताः बा

बा तुम थींबापू की छायादेश व घर कोधुरी पे साधाबापू के, बापू बनने कीऐतिहासिक प्रक्रिया में साथईंट बनी वो नींव कीसदा रही वो साथ। चाहे नहीं था पढ़ना आयापर बापू का साथ निभायासात वर्ष की उम्र में हो गईबापू संग सगाईतेरह वर्ष की उम्र में हो गईपिता के घर से विदाई। उन्नीस वर्ष की आयु

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आज की कविताः तीखे शब्द

तीखे और कड़वे शब्दहैं कमजोर की निशानी,लेकिन समझ नहीं पाता हैकोई भी अभिमानी। पैर फिसल जाने पर इंसांबच सकता है लेकिन,जुबां फिसल जाए तोबचना होता है नामुमकिन। जब कमाकर खाय मनुष्यतो कहलाये संस्कृति,जब वो छीन कर खाता हैतो बन जाय विकृति। मरणोपरांत ना सोचे, बोलेना कुछ ही कर पाए,जीवित जो ना सोचे, बोलेवो मृतप्रायः कहलाए।

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आज की कविताः डर

लोग डरते हैं भूत और प्रेतों सेमैं डरती हूं धरती के उन लोगों सेजो अपनों का खून बहा रहे हैंबलात्कारियों के कंधे से कंधामिला रहे हैं औरलोगों को ज़िंदा जला रहे हैं। लोग डरते हैं, गरीबी से, बदहाली सेमैं डरती हूं, अमीरी से, खुशहाली सेजो भाई को भाई कादुश्मन बना रही हैनाते-रिश्ते तुड़वा रही हैप्यार

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आज की कविताः कहानी किसान की

रात के पिछले पहर मेंहल की हत्थीहाथ में पकड़ करखेतों की पगडंडी परकदम बढ़ाता चला जा रहा हैबादल जिसके मीत हैंखेत जीत के गीत हैंखुद भूखा रहकर वोजहां का पेट भरता हैवर्षा, धूप, आंधी, सर्दीकोहरा भरी कड़कती ठंडी रात मेंदुनिया को सुख पहुंचाने कोमेहनत से नहीं डरता हैउसका नाम किसान है। जिसका नाम किसान हैआज

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आज की कविताः मैं समझ नहीं पाई…

प्रसव पीड़ा को सहती हुईउसकी चीखपहुंच गई वहांजहां निवास करती हैसृष्टि।निढाल होपरास्त सा महसूसकरती हैजब पता चलता हैकिपैदा हुई है बेटी।क्योंकिबेटी के आने सेन होता है कोईखुशन मिलती है बधाईपड़ी रहती हैअकेलीछा जाता हैसन्नाटा चारों ओरहो जाते हैं सब खामोश।न कोई पूछता हैन बूझता हैन पास आता हैन हाल पूछता हैबस मिलती हैसबसे जुदाई।बेटा होतातो

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आज की कविताः पेड़ होना परम्परा है…

जैसे पेड़ का जुडऩा जरूरी है धरती सेलहरों का जुडना जरूरी है नदी सेऔर धूप का जुडऩा जरूरी है सूरज सेवैसे ही आदमी का जुडना जरूरी है परम्परा सेपेड़, लहरें और धूपधरती की शाश्वत परम्परायेंही तो हैं दरअसल पिताजैसे नींव है आदमी कीवैसे ही परम्परा नींव हैपिता की जैसे धरती का अस्तित्व सूरज सेवैसे ही

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