आने वाले समय में विश्व पर अमेरिका के बजाय ईस्ट एशिया की बादशाहत होगी विश्व की निगाहें भारत की ओर, भारत के पास डोमिनेन्स का मौका
CHANDIGARH, 26 APRIL: अमेरिका में 40 वर्षों से सीनियर सर्जन डॉ. स्वराज सिंह अमेरिका की कूटनीति पर वर्षों से नजरें गड़ाए बैठे हैं , चंडीगढ़ प्रेस क्लब में पत्रकारों से रूबरू हो उन्होंने बताया कि उनका सम्पर्क उच्च प्रशासनिक अधिकारियों से रहा और इसीलिए उन्होंने यूक्रेन-रशिया वॉर का अंदेशा पहले से ही जता दिया था।
उन्होंने कहा कि अमेरिका के उकसावे के कारण ही यूक्रेन ने रूस के साथ पंगा मोल लिया है। ऐसा लग रहा है कि यूक्रेन की हो रही तबाही और उजाड़ के कारण यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की रूस की शर्तें मानने और समझौता करने के लिए तैयार हो गए हैं परंतु अमेरिका यह नहीं चाहता कि यह लड़ाई जल्दी खत्म हो बल्कि उसको लगता है कि जितना यह लड़ाई लंबी बढ़ेगी उतना ही उसको लाभ होगा। अमेरिका के हथियार बनाने वाला कारपोरेशन न सिर्फ़ बड़े-बड़े मुनाफे कमा रहा है बल्कि यूक्रेन की लड़ाई में अपने नए बने हथियारों को टेस्ट करने के लिए एक युद्धशाला के तौर पर प्रयोग कर रहा है। अमेरिका यूरोप को महंगे भाव से अपने पेट्रोलियम पदार्थ भी बेचना चाहता है। अमेरिका को लगता है कि जितनी लड़ाई लंबी होगी उतना ही उसका विरोधी रूस कमजोर होता जाएगा और उसके अन्य मुख्य विरोधी चीन जैसे देशों पर दबाव बढ़ जाएगा।
उन्होंने कहा कि जितनी लड़ाई लंबी होगी उतना ही यूरोपियन देश जो पहले अमेरिका से आजाद हो रहे थे अब दोबारा अमेरिका की छत्रछाया में इकट्ठे हो जाएंगे। दूसरे शब्दों में बिखर रहे पश्चिमी गुट मुड़कर के इकट्ठे हो जाएंगे और अमेरिका की संसार पर चौधराहट और सरदारी बनी रहेगी। कहीं न कहीं अमेरिका को यह आशा है कि जैसे-जैसे लड़ाई लंबी होगी रूस का आर्थिक संकट और अधिक गहरा होता जाएगा तथा लड़ाई में मरने वाले रूसी फौजियों की गिनती भी बढ़ती जाएगी। इसका नतीजा यह निकल सकता है कि रूस में पुतिन का तख्ता पलट दिया जाए और एक अमेरिका की तरफदारी करने वाली सरकार अस्तित्व में आ जाए। इराक, अफगानिस्तान, लीबिया और सीरिया की तर्ज पर अमेरिका रूस में भी अपनी मर्जी की सरकार बनाने का यत्न कर रहा है परंतु क्या अमेरिका अपने इस इरादे में कामयाब हो जाएगा या समूचे संसार को विनाश की तरफ धकेल देगा, इस बात का फैसला तो समय ही करेगा। क्या अमेरिका को अपने मंसूबे में सफलता मिलेगी? इसका उन्होंने कहा कि अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पहले कहे गए चार देश इराक, अफगानिस्तान, लीबिया और सीरिया में अमेरिका की नीतियों का क्या नतीजा निकला?अमेरिका ने इराक पर हमला करके सद्दाम हुसैन का तख्ता पलट दिया।
राष्ट्रपति बुश ने एक समुद्री जहाज में बयान देकर यह दावा किया कि वह इराक की लड़ाई जीत गए हैं परंतु इसके कुछ महीने बाद ही अमेरिका की खुफिया एजेंसी सी.आई. ए. ने कहां कि वह यह लड़ाई हार गए हैं क्योंकि जिस उद्देश्य के साथ लड़ाई शुरू की गई थी वह पूरा नहीं हो सका। इराक की बहुत बड़ी तबाही हुई। अमेरिका ने इस लड़ाई पर तीन खरब (ट्रिलियन) डॉलर खर्च किए, परंतु अमेरिका के पास से कुछ भी नहीं गया। अमेरिका के बुद्धिजीवी और विद्वान तो पहले ही दिन से यही कह रहे थे कि लड़ाई शुरू करके वे बड़ी गलती कर रहे हैं। आज सारा अमेरिका ही यह मान रहा है कि इराक की लड़ाई एक बहुत बड़ी गलती थी। अफगानिस्तान की लड़ाई में भी अमेरिका ने ही बहुत बर्बादी की। अमेरिका का खर्च भी बहुत हुआ और जान-माल का नुकसान भी हुआ, परंतु अंत में क्या मिला उसे?उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान से बहुत ही बेइज्जत हो करके अमेरिका को निकलना पड़ा। लीबिया अरब देशों में एक ऐसा देश था जिसके निवासी बड़ी खुशहाल थे और उसको संसार के किसी देश के साथ भी ज्यादा सहूलतें प्राप्त थी परंतु अमेरिका ने न सिर्फ गद्दाफी का तख्ता पलट दिया बल्कि जिस ढंग से गद्दाफी को मारा गया उसने संसार के इतिहास में बर्बरता, दरिंदगी और बहसीपन की एक नई मिसाल कायम की।
लीबिया की लगभग पूरी तरह तबाही हो गई, परंतु अमेरिका के हाथ क्या लगा? अमेरिकी अम्बेसी को आग लगा दी गई अमेरिकी राजदूत और स्टॉप जिंदा जला दिए गए, अमेरिका के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि किसी अमेरिकी अंबेसडर को जिंदा जला दिया गया हो। सीरिया में तो अमेरिका के राष्ट्रपति असद के तख्ता पलट के प्रयासों का और भी खराब नतीजा निकला है। न सिर्फ अब तक असद का तख्ता ही पलटा गया बल्कि हाल ही में अरब देशों के द्वारा राष्ट्रपति असद को यू.ए.ई. में निमंत्रित किया भी गया है और बहुत स्वागत किया गया है। सिर्फ सीरिया में तबाही ही अमेरिका के पल्ले पड़ी है।
उन्होंने कहा कि यह स्पष्ट है कि इन चारों देशों में अमेरिका की नीतियों का नतीजा इन देशों की बड़ी तबाही है। आप अमेरिका के सामने निराशा और निमोसी ही आई है। परंतु उसने अपनी नीतियों की असफलता से कोई सबक सीखने के बजाय न सिर्फ एक देश बल्कि सारे संसार का भविष्य दांव पर लगा दिया है। यूक्रेन में अमेरिका ने रूस के साथ सीधा पंगा खड़ा कर दिया है। रूस उन चार देशों की तरह देश नहीं है बल्कि कम से कम फौजी तौर पर संसार भर में सबसे सामर्थ्यवान देश है, जिसके पास वे हथियार हैं, जिसके मुकाबले किसी दूसरे देश के पास नहीं है, चाहे हाईपर मिसाइलें हों या एम 400 मिसाइल सिस्टम हो या फिर आखरी हथियार, परमाणु मिसाइलें हों, सारे संसार की तुलना में रूस के पास परमाणु हथियारों की गिनती सबसे ज्यादा है। रूस के पास सबसे तेज मार करने वाले हथियार हैं। इस बार अमेरिका की असफलता का नतीजा न केवल एक देश यूक्रेन की संपूर्ण तबाही का कारण बन सकता है बल्कि इससे सारे संसार के विनाश की संभावना भी पैदा हो गई है।
अमेरिका ने यूरोपीय देशों को भी अपने साथ मिला लिया है और वह मिलकर के रूस पर घेरा डाल रहे हैं। हमारे कुछ विद्वानों और बुद्धिजीवियों को रूस की तरफ यूक्रेन से छोड़े जा रहे बंब और मिसाइलें तो नजर आ रही हैं परंतु उनको अमेरिका और यूरोपियन देशों का एकजुट होकर के रूस को हर दृष्टि से घेरना नजर नहीं आ रहा है। ये देश यूक्रेन को अरबों डालर के बहुत ही मारक हथियार दे रहे हैं जोकि रूसी फौज और यूक्रेन के बीच रूसी अल्पसंख्यकों के विरोध में बढ़ते जा रहे हैं। पुतिन ने अब तक बहुत संयम से काम लिया है। उन्होंने अपनी फौज को कम से कम नुकसान करने का हुकुम दिया हुआ है। कई तो यह भी कह रहे हैं कि उन्होंने अपनी फौज के हाथ बांधे हुए हैं परंतु ज्यों ज्यों अमेरिका और यूरोपीय देशों का रूस के किनारे घेरा बढ़ता जाएगा और ज्यों ज्यों रूसी फौजियों का जानी नुकसान बढ़ता जाएगा और ज्यों ज्यों रूस विरोधी लगी पाबंदियां बढ़ती जाएंगी त्यों त्यों रूस में एक भावना बढ़ जाएगी कि उसके पास जो भी हथियार हैं वह उनका प्रयोग करे। यदि दूसरे शब्दों में कहें तो रूस की परमाणु हथियार प्रयोग करने की संभावना बढ़ जाएगी। अमेरिका जो भी कर रहा है उसके साथ वह संसार को एक बहुत ही तबाही वाले परमाणु युद्ध की तरफ धकेल रहा है। रूस ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि उसको अपनी अस्मिता को खतरा महसूस होता है तो वह परमाणु हथियारों का प्रयोग कर सकता है। संसार को रूस की इस चेतावनी को बहुत ही गंभीरता के साथ लेना चाहिए। चाहिए तो यह था कि अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के देश जेलेंस्की को यह समझाते कि रूस की जायज मांगों को मानने के साथ जो समझौता हो सकता है वह वही समझौता करें। परंतु, उन्होंने इससे बिल्कुल उल्टी राह अपनाई है। वह जेलेंस्की को कह रहे हैं कि फिक्र न करो हम आपके साथ हैं।
हम रूस के विरुद्ध सीधी फौज नहीं भेजेंगे बल्कि तुम्हें हर तरह के हथियारों की सप्लाई करते रहेंगे तथा हर तरह से रूस को कमजोर करने का प्रयास करेंगे। उनका आश्वासन है कि तुम अपनी फौज को कहो कि जितनी भी रूस की छति कर सकते हो करते रहो। क्या अमेरिका से यूरोपीय देशों की बुद्धि विपरीत हो सकती है? गीता में श्री कृष्ण ने यही कहा कि जब विनाश होना होता है तो बुद्धि विपरीत हो जाती है अर्थात् उस समय उल्टा दिखाई देना शुरू हो जाता है। अमेरिकी तथा यूरोपीय देश तो रूस को घेर के और उसको नुकसान करके यह कह रहे हैं कि वह प्रोपेगेंडा की लड़ाई जीत रहे हैं और अपने दुश्मन को कमजोर कर रहे हैं। किंतु वह यह नहीं सोच रहे कि सच्चाई यह है कि वह अपने अस्तित्व और सारे संसार के अस्तित्व को दांव पर लगा रहे हैं।
यदि यह युद्ध नहीं रुका तो परमाणु युद्ध की संभावना बढ़ जाएगी और सबसे पहले इन्हीं देशों के विनाश का खतरा है। दुख की बात यह है कि बाकी के संसार के बचने की संभावना भी कम है। सारे संसार के लोग और खास करके बुद्धिजीवी लोगों का फर्ज है कि वे इस संसार के संभावित विनाश के बारे में जागरूक करें और जिस तरह भी हो सकता हो, संसार को संभावित तबाही से बचाने का प्रयास करें। इस विनाश से बचने का एकमात्र हल संवाद के द्वारा दोनों पक्षों की जायज मांगों को तय करना और उन्हें स्वीकार कर लेना है।