ANews Office: पहली बार ही ऐसा होगा कि पितृ पक्ष में तर्पण कराने के लिए कर्मकांडी उपलब्ध न हों, भोजन ग्रहण करने के लिए बहुत कम ब्राह्मण हामी भरें और श्राद्ध कर्म में अपने नजदीकी संबंधी तक सम्मिलित न हों, क्योंकि कोरोनाकाल चल रहा है। कई तरह के प्रतिबंध सरकार की तरफ से लगे हुए हैं तो कई मामलों में लोग खुद भी सावधानी बरत रहे हैं लेकिन हिंदू धर्म सदा से ही समय, स्थान व स्थिति के अनुसार खुद को ढाल लेता है, इसी लिए सनातन कहलाता है।
इस बार सबकुछ बदला हुआ
इस बार चातुर्मास पूरे पांच मास का हो गया। लीप वर्ष के कारण अधिक मास दो मास का हो गया। आम तौर पर श्राद्ध समाप्ति के अगले दिन नवरात्र आरंभ हो जाते थे लेकिन इस बार लगभग एक मास के अंतराल के बाद नवरात्र शुरू होंगे। हालांकि 160 साल बाद ऐसा हो रहा है, यानी 2020 में सब कुछ बदला-बदला हुआ है। लिहाजा, इस बार श्राद्ध 2 सितंबर से शुरू होंगे और 17 सितंबर को समाप्त होंगे। इसके अगले दिन 18 सितंबर से अधिकमास शुरू हो जाएगा, जो 16 अक्तूबर तक चलेगा। वहीं नवरात्रि का पावन पर्व 17 अक्तूबर से शुरू होगा और 25 अक्तूबर तक चलेगा। चातुर्मास देवउठनी के दिन 25 नवम्बर को समाप्त होंगे।
घर में किए गए श्राद्ध का पुण्य आठ गुना अधिक
श्राद्ध किसी सार्वजनिक प्रदर्शन की बजाय व्यक्तिगत या पारिवारिक दृष्टि से पितरों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का पखवाड़ा है। आप इस श्राद्ध कर्म को अत्यंत सादगी से अपने घर में स्वयं भी कर सकते हैं। घर में किए गए श्राद्ध का पुण्य तीर्थ-स्थल पर किए गए श्राद्ध से आठ गुना अधिक मिलता है। जिस तिथि को किसी पूर्वज का निधन हुआ हो, पितृ पक्ष में उसी तिथि को सूर्योदय से लेकर दोपहर 12.24 के मध्य श्राद्ध करें। इससे पूर्व किसी सुयोग्य कर्मकांडी से तर्पण करा लिया जाए। सात्विक भोजन ही स्वयं किया जाए। यदि किसी कारण ब्राहम्ण या कर्मकांडी उपलब्ध न हों तो आप स्वयं किसी नदी या तीर्थ स्थल या घर में किसी उचित स्थान पर भगवान सूर्य को ही पंडित मानकर पितरों के मोक्ष के लिए पिंडदान करें ।
कैसे करें श्राद्ध ?
सुबह उठकर स्नान कर देव स्थान व पितृ स्थान को गंगाजल से पवित्र करें। महिलाएं शुद्ध होकर पितरों के लिए भोजन बनाएं।
सामग्रीः सर्प-सर्पिनी का जोड़ा, चावल, काले तिल, सफेद वस्त्र, 11 सुपारी, दूध, जल, माला-दिवंगत पूर्वज की फोटो।
पूर्व या दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें। सफेद कपड़े पर सामग्री रखें। 108 बार माला से जाप करें या सुख-शांति, समृद्धि प्रदान करने तथा संकट दूर करने की क्षमा याचना सहित पितरों से प्रार्थना करें। हाथ में जौ, तिल, चावल लेकर जल के साथ पितृ आत्माओं का नाम लेकर भगवान सूर्य को अर्पित करें। जल में तिल डालकर 7 या 11 बार अंजलि दें। दीप जलाकर अक्षत, पुष्प, मिष्ठान भी चढ़ाएं। पितरों के नाम का एक एक नारियल चढ़ाएं। यदि परिवार में कोई पुरुष नहीं है तो महिलाएं भी पिंडदान कर सकती हैं। शेष सामग्री को पोटली में बांधकर प्रवाहित कर दें। गाय, कुत्ता, कौआ व अतिथि के लिए भोजन से चार ग्रास निकालें। हलवा, खीर, भोजन, ब्राहमण, निर्धन, गाय, कुत्ते, पक्षी को दें।
पूर्वजों की स्मृति में श्राद्ध पक्ष में क्या करें दान ?
कोरोनाकाल में दान का स्वरूप भी बदल गया है। वैसे तो शास्त्रों में सुपात्र ब्राहम्मण ही दान का हकदार है परंतु आज यह वर्ग भी लगभग साधन संपन्न है और उनकी आर्थिक स्थिति तथा उनकी आवश्यकतानुसार ही दान करें । आज स्वास्थ्य या चिकित्सा संबंधी दानों का महत्व और बढ़ गया है। आप पितरों की याद में इन चीजों का दान भी कर सकते हैं। मास्क, दस्ताने, आक्सी मीटर, पीपीई किट, थर्मल स्कैनर, दवाएं, सेनेटाइजर, साबुन, नैपकिन, सैनेटरी नैपकिन, औषधीय पौधे, खाद्य सामग्री या किसी निर्धन की आवश्यकतानुसार सहायता।
श्राद्ध तिथि सारिणी
1 सितंबर- महालय पूर्णिमा का श्राद्ध
2 सितंबर- पितृ पक्ष श्राद्ध आरंभ- पूर्णिमा-बुधवार, नाना-नानी का श्राद्ध
3 सितंबर- प्रतिपदा का श्राद्ध
4 सितंबर- द्वितीया का श्राद्ध
5 सितंबर- तृतीया का श्राद्ध
6 सितंबर- चतुर्थी का श्राद्ध
7 सितंबर- पंचमी का श्राद्ध, जो अविवाहित अवस्था में परलोक गए हों।
8 सितंबर-षष्ठी का श्राद्ध
9 सितंबर- सप्तमी का श्राद्ध
10 सितंबर- अष्टमी का श्राद्ध
11 सितंबर- नवमी का श्राद्ध सौभाग्यवती का श्राद्ध।
12 सितंबर-दशमी का श्राद्ध
13 सितंबर-एकादशी का श्राद्ध
14 सितंबर-द्वादशी का श्राद्ध- संन्यासियों का श्राद्ध
15 सितंबर-त्रयोदशी का श्राद्ध
16 सितंबर-चतुर्दशी का श्राद्ध -शस्त्र, विष, दुर्घटना आदि से मृतकों का श्राद्ध
17 सितंबर-सर्वपितृ श्राद्ध, असमय व अज्ञात तिथि वाले मृतकों का श्राद्ध, पितृ विसर्जन
क्यों करें श्राद्ध ?
पूर्वजों की आत्मा की शांति और उनके तर्पण के निमित्त श्राद्ध किया जाता है। यहां श्राद्ध का अर्थ श्रद्धा पूर्वक अपने पितरों के प्रति सम्मान प्रकट करने से है। श्राद्ध पक्ष अपने पूर्वजों, जो इस धरती पर नहीं है, को एक विशेष समय में 15 दिनों की अवधि तक सम्मान दिया जाता है। इस अवधि को पितृ पक्ष अर्थात श्राद्ध पक्ष कहते हैं। हिंदू धर्म में श्राद्ध का विशेष महत्व होता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार जब सूर्य का प्रवेश कन्या राशि में होता है तो उसी दौरान पितृ पक्ष मनाया जाता है। पितरों की आत्मा की शांति के लिए पितृ पक्ष में तर्पण और पिंडदान को सर्वोत्तम माना गया है।
ऐसे समझें श्राद्ध के महत्व को
अक्सर आधुनिक युग में श्राद्ध का नाम आते ही इसे अंधविश्वास की संज्ञा दे दी जाती है। प्रश्न किया जाता है कि क्या श्राद्धों की अवधि में ब्राहमणों को खिलाया गया भोजन पितरों को मिल जाता है ? क्या यह हवाला सिस्टम है कि पृथ्वी लोक में दिया और परलोक में मिल गया ? फिर जीते जी हम माता-पिता व अन्य बुजुर्गों को नहीं पूछते, मरणेापरांत पूजते हैं ! ऐसे कई प्रश्न हैं जिनके उत्तर तर्क से देने कठिन होते हैं, फिर भी उनका औचित्य अवश्य होता है।
आप अपने सुपुत्र से कभी पूछें कि उसके दादा – दादी जी या नाना -नानी जी का क्या नाम है ? आज के युग में इस सवाल पर 90 प्रतिशत बच्चे या तो सिरखुजलाने लग जाते हैं या ऐं… ऐं … करने लग जाते हैं। परदादा का नाम तो रहने ही दें।
यदि आप चाहते हैं कि आपका नाम आपका पोता भी जाने तो आप श्राद्ध के महत्व को समझें। सदियों से चली आ रही भारत की इस व्यावहारिक एवं सुंदर परंपरा का निर्वाह अवश्य करें। हम पश्चिमी सभ्यता की नकल करके मदर्स-डे, फादर्स-डे, सिस्टर-डे, वूमेन-डे, वेलेंटाइन-डे आदि पर ग्रीटिंग कार्ड या गिफ्ट देकर डे मना लेते हैं तथा उसके पीछे निहित भावना या उदे्श्य को अनदेखा कर देते हैं परंतु श्राद्धकर्म का एक समुचित उद्देश्य है, जिसे धार्मिक कृत्य से जोड़ दिया गया है।
श्राद्ध आने वाली संतति को अपने पूर्वजों से परिचित करवाते हैं। जिन दिवंगत आत्माओं के कारण पारिवारिक वृक्ष खड़ा है, उनकी कुर्बानियों व योगदान को स्मरण करने के ये 15 दिन होते हैं। इस अवधि में अपने बच्चों को परिवार के दिवंगत पूर्वजों के आदर्श व कार्यकलापों के बारे में बताएं, ताकि वे कुटुंब की स्वस्थ परंपराओं का निर्वाह कर सकें।
ऐसा नहीं है कि केवल हिन्दुओं में ही मृतकों को याद करने की प्रथा है। ईसाई समाज में निधन के 40 दिनों बाद एक रस्म की जाती है, जिसमें सामूहिक भोज का आयोजन होता है। इस्लाम में भी 40 दिनों बाद कब्र पर जाकर फातिहा पढ़ने का रिवाज है। बौद्ध धर्म में भी ऐसे कई प्रावधान हैं।तिब्बत में इसे तंत्र-मंत्र से जोड़ा गया है। पश्चिमी समाज में मोमबत्ती प्रज्जवलित करने की प्रथा है।
दिवंगत प्रियजनों की आत्माओं की तृप्ति, मुक्ति एवं श्रद्धा पूर्वक की गई क्रिया का नाम ही श्राद्ध है। आश्विनमास का कृष्ण पक्ष श्राद्ध के लिए तय है। ज्योतिषीय दृष्टि से इस अवधि में सूर्य कन्या राशि पर गोचर करता है। इसलिए इसे कनागत भी कहते हैं। जिनकी मृत्यु तिथि मालूम नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस को किया जाता है। इसे सर्वपितृ अमावस या सर्वपितृ श्राद्ध भी कहते हैं। यह एक श्रद्धापर्व है…भावना प्रधान पक्ष है। इस बहाने अपने पूर्वजों को याद करने का एक रास्ता है। जिनके पास समय अथवा धन का अभाव है, वे भी इन दिनों आकाश की ओर मुख करके दोनों हाथों द्वारा आह्वान करके पितृगणों को नमस्कार कर सकते हैं। श्राद्ध ऐसे दिवस हैं जिनका उद्देश्य परिवार का संगठन बनाए रखना है। विवाह के अवसरों पर भी पितृ पूजा की जाती है।
वास्तुशास्त्र का भी अवश्य ध्यान रखना चाहिए
दिवंगत परिजनों के विषय में वास्तुशास्त्र का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। घर में पूर्वजों के चित्र सदा नैऋत्य दिशा में लगाएं। ऐसे चित्र देवताओं के चित्रों के साथ न सजाएं। पूर्वज आदरणीय एवं श्रद्धा के प्रतीक हैं, पर वे ईष्ट देव का स्थान नहीं ले सकते। जीवित होते हुए अपनी न तो प्रतिमा बनवाएं और न ही अपने चित्रों की पूजा करवाएं। ऐसा अक्सर फिल्म उद्योग या राजनीति में होता है, जिसे किसी भी प्रकार शास्त्र सम्मत नहीं माना जा सकता।
हमारे समाज में हर सामाजिक व वैज्ञानिक अनुष्ठान को धर्म से जोड़ दिया गया था, ताकि परंपराएं चलती रहें। श्राद्धकर्म उसी श्रृंखला का एक भाग है, जिसके सामाजिक या पारिवारिक औचित्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
धार्मिक मान्यताएं
हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध करना बेहद जरूरी माना जाता है। मान्यतानुसार अगर किसी मनुष्य का विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण न किया जाए तो उसे इस लोक से मुक्ति नहीं मिलती। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों यानी पूर्वजों को प्रसन्न करना चाहिए। हिन्दू ज्योतिष के अनुसार भी पितृ दोष को सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है। पितरों की शांति के लिए हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विनकृष्ण अमावस्या तक के काल में पितृ पक्ष श्राद्ध होते हैं। मान्यता है कि इस दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते हैं, ताकि वह अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें।
ब्रह्म पुराण के अनुसार जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम उचित विधि द्वारा ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक दी जाए तो वह श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध के माध्यम से पितरों को तृप्ति के लिए भोजन पहुंचाया जाता है। पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा होता है।
मान्यता है कि अगर पितृ रुष्ट हो जाएं तो मनुष्य को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पितरों की अशांति के कारण धनहानि और संतान पक्ष से समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। संतान.हीनता के मामलों में ज्योतिषी पितृ दोष को अवश्य देखते हैं। ऐसे लोगों को पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
श्राद्ध में तिल, चावल, जौ आदि को अधिक महत्त्व दिया जाता है। साथ ही पुराणों में इस बात का भी जिक्र है कि श्राद्ध का अधिकार केवल योग्य ब्राह्मणों को है। श्राद्ध में तिल और कुशा का सर्वाधिक महत्त्व होता है। श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए। श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई, पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है।
श्राद्ध में कौओं का महत्त्व
कौए को पितरों का रूप माना जाता है। मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितृ कौए का रूप धारण कर नियत तिथि पर दोपहर के समय हमारे घर आते हैं। अगर उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता है तो वह रुष्ट हो जाते हैं। इस कारण श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं को दिया जाता है।
पितृ दोष में अवश्य करें श्राद्ध
मान्यता है कि यदि ज्योतिषीय दृष्टि से कुंडली में पितृ दोष है तो निम्न परिणाम देखने को मिलते हैं-
- संतान न होना
- धन हानि
- गृह क्लेश
- दरिद्रता
- मुकदमे
- कन्या का विवाह न होना
मदन गुप्ता सपाटू, ज्योतिर्विद्, फोनः 9815619620
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