राज्यपाल का यह कदम संविधान की भावना के खिलाफ: सुभाष चावला
CHANDIGARH, 20 MARCH: पंजाब राजभवन के ऑडिटोरियम में आज ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग पर विवाद खड़ा हो गया है। चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस ने पंजाब राजभवन परिसर में ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म को प्रदर्शित करने के पंजाब के राज्यपाल के फैसले पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए इसका कड़ा विरोध किया।
चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सुभाष चावला ने राजभवन में फिल्म की स्क्रीनिंग को राज्यपाल के कार्यालय की गरिमा के विपरीत बताते हुए कहा कि राज्यपाल एक संवैधानिक संस्था है, जिसे एक साधारण फिल्म को बढ़ावा देने के स्तर तक नहीं गिरना चाहिए।
चावला ने कहा कि कांग्रेस पार्टी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए हमेशा खड़ी है और विश्वास करती है कि परिपक्व दर्शक इस फिल्म के निर्माताओं की इस विघटनकारी फिल्म के माध्यम से झूठी और पक्षपातपूर्ण कथा प्रस्तुत करने की असली मंशा समझ जाएंगे। चावला ने कहा कि राज्यपाल अब ऐसी फिल्म को बढावा देने के लिए आगे आए हैं, जो न केवल संविधान की भावना के खिलाफ है, बल्कि देश में एक सामंजस्यपूर्ण सामाजिक ताने-बाने को कमज़ोर करता है।इसका समर्थन किसी भी सही सोच वाले व्यक्ति द्वारा नहीं किया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि यह फिल्म केवल भाजपा और आरएसएस के विभाजनकारी एजेंडे को बढ़ावा देती है और देश के लोग इसे पहले ही समझ चुके हैं। दर्शकों को सिनेमाघरों तक वापस लाने के लिए भाजपा अब राज्य की मशीनरी और संवैधानिक संस्थाओं का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर है। उन्होंने कहा कि फिल्म इस सच्चाई को छुपाती है कि कश्मीरी पंडितों का पलायन 1990 में एक अयोग्य गैर-कांग्रेसी सरकार के शासन के दौरान हुआ था, जिसे भाजपा का समर्थन प्राप्त था। एकमात्र नेता, जिन्होंने इस दुर्भाग्यपूर्ण पलायन को रोकने के लिए एक राजनीतिक लड़ाई छेड़ी थी, वह तत्कालीन पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। सुभाष चावला ने कहा कि यूपीए सरकार ने कश्मीरी पंडितों के लिए कई पुनर्वास योजनाएं बनाई और लागू कीं, जिन्हें वर्तमान शासन ने रोक दिया था। इसके बजाय वे उनके हालात का इस्तेमाल संकीर्ण राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए कर रहे हैं।
चावला ने कहा कि फिल्म उद्योग, जो अब तक काफ़ी हद तक गैर राजनीतिक रहा,अब भाजपा के विभाजनकारी एजेंडे के सामने झुक रहा है। चावला ने कहा कि इस तरह के एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए “राज्य के राज्यपाल” जैसे संवैधानिक संस्था का इस्तेमाल दुर्भाग्यपूर्ण है।