हरियाणा ग्रंथ अकादमी व उमंग अभिव्यक्ति मंच ने ‘भारतीय संविधान में सांस्कृतिक मूल्य’ विषय पर किया ऑनलाइन संगोष्ठी का आयोजन
PANCHKULA: 26 नवंबर 1949 को हमने भारतीय संविधान के जिस स्वरूप को अंतिम रूप दिया, वह दुनिया भर के संविधान से उधार लिए गए तत्व पर आधारित है। देश की आजादी के समय बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे जिनकी प्रतिबद्धता भारतीय संस्कृति के प्रति थी, लेकिन पश्चिम में पढ़े लिखे और पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित लोगों का भी एक ऐसा वर्ग था जिनका भारतीय संस्कृति से खास लगाव नहीं था। इनमें पश्चिम में पढ़े-लिखे बैरिस्टरों की फौज भी शामिल थी। दुर्भाग्य से सत्ता पर वही लोग काबिज हुए जो खुद को ‘एक्सीडेंटल हिंदू’ कहते थे। यह बात हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष एवं भाजपा के हरियाणा प्रदेश प्रवक्ता डॉ. वीरेंद्र सिंह चौहान ने भारतीय संविधान में सांस्कृतिक मूल्य विषय पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी व श्याम सिंह मेमोरियल ट्रस्ट की साहित्य इकाई उमंग अभिव्यक्ति मंच के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित ऑनलाइन संगोष्ठी में अपने विचार रखते हुए कही।
डॉ. चौहान ने कहा कि संविधान को भारतीय पहचान देने के लिए तत्कालीन नीति नियंताओं ने संविधान की मूल प्रति पर भारत की प्राचीन संस्कृति के प्रतीक चित्रों को भी स्थान दिया था, जिसे बाद के दिनों में रहस्यमय तरीके से हटा दिया गया। भारतीय संस्कृति से जुड़े उन चित्रों को संविधान की अगली प्रतियों से क्यों हटाया गया और इसके पीछे मंशा क्या थी, यह जांच का विषय है। संभव है, ऐसा करने वालों के मन में भारतीय संस्कृति के प्रति नकारात्मक भाव रहे हों।
भाजपा प्रवक्ता डॉ. वीरेंद्र सिंह चौहान ने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा हमारी संस्कृति की रीढ़ रही है। प्राचीन ज्ञान परंपरा के आधार पर ही हमने पूरी दुनिया को जीने का मार्ग बताया। आज दुनिया भर में सूर्य नमस्कार और आयुर्वेद समेत भारतीय लोक परंपराओं की स्वीकार्यता बढ़ रही है। आज लोग यह मान रहे हैं कि स्वास्थ्य का मतलब केवल शारीरिक और मानसिक फिटनेस ही नहीं है। आध्यात्मिक स्वास्थ्य भी इसमें शामिल है। उन्होंने कहा कि केंद्र और राज्य की मौजूदा सरकार भारतीय जीवन मूल्यों के प्रति पिछली सरकारों से ज्यादा सजग और प्रतिबद्ध है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने संबोधन में अक्सर वेद, उपनिषद और अन्य भारतीय ग्रंथों की बात का उल्लेख करते हैं।
संगोष्ठी के एक अन्य प्रतिभागी रविंद्र कुमार गुप्ता ने कहा कि देश में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जो बिना किसी जात-पात, क्षेत्रवाद और लिंगभेद के काम करे। आज संविधान की रक्षा के नाम पर संविधान का उल्लंघन किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि सभी पुस्तकालयों में संविधान की उस मूल प्रति की कॉपी अवश्य होनी चाहिए जिसमें भारतीय संस्कृति और आस्था को प्रदर्शित करने वाले चित्र हों। रविंद्र गुप्ता ने कहा कि अपनी संस्कृति बचाने के लिए हमें अपने ग्रंथों की ओर लौटना होगा। यदि हम भगवत गीता, वाल्मीकि रामायण और मूल संविधान का अध्ययन करें तो हमारी सभी आकांक्षाएं पूरी होंगी।
जय भगवान सिंगला ने कहा कि सांस्कृतिक मूल्य पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली चीज है जो बुजुर्गों से युवाओं को हस्तांतरित होती है। अपने समाज में सांस्कृतिक विरासत का विपुल भंडार है जिनके प्रचार-प्रसार से न सिर्फ भारतीय संस्कृति का विस्तार होगा, बल्कि इससे रोजगार भी बढ़ेगा।
एक अन्य प्रतिभागी ममता सूद ने कहा कि भारत का संविधान बहुत लचीला है। इसमें सांस्कृतिक मूल्यों को जगह मिली है। हमारा संविधान समानता का अधिकार देता है। अदालतों में जज कानून सम्मत फैसला देते हैं। उन्होंने कहा कि किसी बात पर अपना विरोध दर्ज कराते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि दूसरे के अधिकारों का हनन न हो।
डॉ. प्रद्युम्न भल्ला ने कहा कि हमारा संविधान हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। महिलाओं को भी अपनी बात रखने के लिए बहुत बड़ा मंच मिला है। पिछले 72 वर्षों के दौरान देश ने कई उपलब्धियां हासिल की हैं। यह भारतीय संविधान की मजबूत आधारशिला के कारण संभव हो पाया है। उन्होंने कहा कि संविधान का निर्माण करते समय कुछ वैसे बिंदुओं को शामिल करने पर भी विचार हुआ था जिन्हें कुछ लोगों के विरोध के कारण नहीं जोड़ा जा सका। इसी प्रकार कुछ वैसे प्रावधानों को भी संविधान में जोड़ा गया जिनसे विद्वानों का एक वर्ग सहमत नहीं था। आज गणतंत्र के 72 साल बीत जाने के बाद इस बात की भी समीक्षा होनी चाहिए कि जो प्रावधान संविधान में जुड़ने से रह गए, उनकी वर्तमान संदर्भ में क्या प्रासंगिकता होती और जो जोड़ दिए गए उनका वर्तमान परिप्रेक्ष्य में क्या औचित्य है।
अतीत कुमार ने कहा कि संविधान का अति लचीलापन भी ठीक नहीं है। सभी की जिम्मेदारी और दायित्वों का निर्धारण होना चाहिए। कार्यक्रम की संचालक नीलम त्रिखा ने कहा कि हमारे संविधान के बारे में बच्चे-बच्चे को पता होना चाहिए। सभी नागरिकों को अपने दायित्व और मौलिक अधिकारों का ज्ञान होना चाहिए। जयपाल शास्त्री ने संस्कृत की महत्ता पर जोर देते हुए कहा कि हम सबको संस्कृत जरूर पढ़ना चाहिए।
कार्यक्रम में अपनी बात रखते हुए सुरेश कुमार ने कहा कि भारत का संविधान लोकतंत्र का दस्तावेज तो है, लेकिन यह कई अंतर्विरोधों से भरा हुआ है। संविधान के कई प्रावधान न सिर्फ अस्पष्ट हैं, बल्कि एक दूसरे को काटते भी हैं। भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है लेकिन न तो इसकी परिभाषा स्पष्ट है, न ही इसकी सीमा तय है। देश विरोधी बातों को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताया जाने लगा है। संविधान में समय-समय पर किए गए विभिन्न संशोधनों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस संविधान के माध्यम से एक खास राजनीतिक एजेंडे को साधने की कोशिश की गई। संवैधानिक व्यवस्था से जुड़े कई प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं। यह संविधान का वह पक्ष है जिस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए।
संगोष्ठी के विषय पर चर्चा करते हुए आशुतोष अंगीरस ने कहा कि हमारे संविधान में किस देश के संविधान से क्या लिया गया, इसका तो अनेक स्थानों पर वृहद् वर्णन है, लेकिन इस संविधान में हमारी अपनी संस्कृति के कौन – कौन से तत्त्व समाहित हैं, इसका कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता। कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय संविधान में भारतीयता से दूरी बनाने के प्रयास किये गए हैं। आवश्यकता है कि सभी विधि विशेषज्ञ संविधान की इस परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करें कि यह भारतीय संस्कृति से जुड़े मूल्यों को पुष्पित-पल्लवित कर पाया है या नहीं ?