CHANDIGARH: चंडीगढ़ प्रदेेश कांग्रेस के संगठन प्रभारी हरीश रावत के साथ यहां पार्टी नेताओं की वीरवार को हुई मीटिंग की आवाजें अभी तक कांग्रेस के भीतर गूंज रही हैं। इसलिए नहीं कि पार्टी की गुटबाजी इसमें फिर खुल गई या एक अति महत्काकांक्षी नेता ने बंद हृॉल में हुई बातों को मीडिया में सार्वजनिक कर दिया। गुटबाजी तो चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस का लंबा इतिहास रहा है और सब नेता इसके अभ्यस्थ भी हो चुके हैं। परेशान सिर्फ वो होता है, जिसकी टांग इस गुटीय लड़ाई में फंस जाती है। लिहाजा, पार्टी में इकला चलो का हामी कहा जाने वाला चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व एक बार फिर निशाने पर है लेकिन इस मीटिंग में कुछ ऐसा अप्रत्याशित भी हुआ, जो सबको हैरान कर गया। इसलिए अब ऊहापोह में फंसे चंडीगढ़ के कांग्रेसजन पार्टी की गुटबाजी के पुराने तथ्यों को खंगालने में लगे हैं। हम भी उनका विश्लेषण कर रहे हैं।
खेमों में ही उलझी रही है प्रधान की कुर्सी
यह तो पिछले नगर निगम चुनाव के बाद से ही जग जाहिर हो गया था कि चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व से पार्टी के कई नेता खुश नहीं हैं और यह पहली बार भी नहीं है। यहां कांग्रेसी गुटबाजी के अतीत के पन्नों को ज्यादा दूर नहीं, 20 साल पहले से ही पलटें तो 1999 में सांसद बनने के बाद स्थानीय संगठन पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए तत्कालीन सांसद पवन कुमार बंसल ने चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर अपनी मर्जी की नियुक्ति कराई थी। यह कुर्सी खुद बंसल ने गहरी गुटबाजी के बीच से ही निकाली थी। तब उनके प्रयासों से होटल प्रेसीडैंट के मालिक बीबी बहल की भी कांग्रेस प्रेसीडैंट बनने की दिली इच्छा पूरी हुई थी। बहल पहले कार्यकाल तक तो चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस में सर्वमान्य नेता रहे लेकिन बाद के दिनों में पवन बंसल और बहल के बीच कटुता पैदा हुई तो बहल के खिलाफ पार्टी में आवाजें उठनी शुरू हो गईं। इससे पार्टी में बहल गुट के रूप में एक नया खेमा भी बन गया था और बहल व बंसल गुट धीरे-धीरे खुलकर आमने-सामने आने लगे। इस तरह गुटबाजी से निकली चंडीगढ़ प्रदेेश कांग्रेस प्रधान की कुर्सी फिर गुटबाजी में फंस गई।
बहल ने 14 साल हारने नहीं दी थी पार्टी
हालांकि बंसल गुट की तमाम चुुनौतियों के बावजूद बहल दिल्ली स्थित पार्टी हाईकमान में अपनी पहुंच के चलते लगातार 14 साल चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस का नेेतृत्व करते रहे। इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि मोदी लहर के बावजूद नितांत व्यक्तिगत कारणों से 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां हुई कांग्रेस की हार को छोड़ दिया जाए तो बहल के नेतृत्व में चंडीगढ़ के भीतर कांग्रेस कभी मार्केट कमेटी तक का चुनाव नहीं हारी थी। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बहल स्वास्थ्य कारणों से खुद मोर्चा छोड़ गए तो एक बार फिर बंसल की मर्जी से ही चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का चयन हुआ और बंसल गुट में रहकर तत्कालीन प्रधान बीबी बहल के खिलाफ आवाज बुलंद करने वालों में शामिल रहे प्रदीप छाबड़ा पर पवन बंसल ने ज्यादा भरोसा जताया। लिहाजा, जनवरी 2015 में पार्टी हाईकमान ने प्रदीप छाबड़ा को चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष मनोनीत कर दिया।
पहली बार बंसल के सामने उनकी पसंद का विरोध और बंसल चुप
पार्टी में गुटबाजी का इतिहास अब फिर खुद को दोहरा रहा है। चंडीगढ़ प्रदेश नेतृत्व की टांग फिर गुटबाजी में फंस गई है। प्रधान समर्थक और प्रधान विरोधी खेमे चार साल पहले ही बन गए थे। मन भेद मतभेद में बदलकर कलह के रूप में खुलकर अब सामने आने लगे हैं लेकिन चौंकाने वाला पहलू यह है कि पार्टी में जहां पहले प्रधान पद पर बहल का विरोध बंसल की इच्छा से लेकिन उनकी सार्वजनिक गैर मौजूदगी में ही होता रहा, वहीं अब प्रधान का विरोध बंसल की अनिच्छा के बावजूद और सार्वजनिक रूप से उनके सामने ही हो रहा है। ये पहली बार है। चंडीगढ़ संगठन प्रभारी हरीश रावत के साथ वीरवार को हुई मीटिंग में कांग्रेसजन इस बात को लेकर भी हैरान रह गए कि पूर्व केंद्रीय मंत्री पवन कुमार बंसल प्रधान विरोधी भाषणों के बाद अपने भाषण में मौजूदा चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व का बचाव करते नहीं दिखे, जबकि यह नेतृत्व उनकी अपनी पसंद का है। यहां तक कि प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व की तरफ मुखातिब होते हुए इशारों ही इशारों में बंसल ने 2016 के नगर निगम चुनाव के दौरान किए गए प्रत्याशी चयन को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। बता दें कि इस प्रत्याशी चयन पर मौजूदा प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व ही हावी रहा था।
कांग्रेसजन असमंजस में
माना जाता है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री पवन बंसल एक्शन से कम अपने रिएक्शन से संदेश ज्यादा देते हैं। अब इस महत्वपूर्ण मीटिंग में प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व को डिफैंड न करके बंसल ने जो रिएक्शन दिया है, उसे लेकर कांग्रेसजन असमंजस में भी हैं और अपने-अपने नजरिए से उसके मायने निकाल रहे हैं। इस बीच, सियासत के मंजे हुए नेता माने जाने वाले देव भूमि उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री, कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव एवं चंडीगढ़ के पार्टी संगठन प्रभारी हरीश रावत ने भी यहां अपनी पहली मीटिंग से ही जबरदस्त हलचल मचा दी है। उन्होंने इस मीटिंग में अपना भाषण शुरू करने से पहले जहां स्थानीय नेताओं में प्रधान पद के एक दावेदार का नाम तक नहीं लिया, वहीं अपने भाषण के बीच में एक पूर्व मेयर का खुलकर नाम लेकर उसके अनुभव का लाभ उठाने की सीख प्रदेश नेतृत्व को देते हुए ब्लॉक लैवल तक जाने का जो संदेश दिया है, कांग्रेसजन इसका भी अपने तरीके से मंथन कर रहे हैं।
इसलिए भी हुई ये मीटिंग
उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत इन दिनों पंजाब के दौरे पर थे। क्योंकि वह पंजाब प्रदेश कांग्रेस के भी संगठन प्रभारी हैं और राहुल गांधी की खेती बचाओ यात्रा वहां होनी थी। चंडीगढ़ प्रभारी भी होने के नाते यहां के कांग्रेस नेताओं के साथ रावत को मीटिंग तो करनी ही थी लेकिन इतनी जल्दी हो जाएगी, इसका किसी को अनुमान नहीं था। यह बात अलग है कि पंजाब के लिए आने के पहले दिन से ही चंडीगढ़ के स्थानीय नेता उनके संपर्क में थे। इसी बीच, नगर निगम चुनाव-2021 के लिए पूर्व कांग्रेसी पार्षद चंद्रमुखी शर्मा ने आम आदमी पार्टी में शामिल होकर जब कुछ अन्य पुराने कांग्रेसियों को भी आम आदमी पार्टी की टोपी पहना दी तो चंडीगढ़ में पार्टी को मिले इस झटके की जानकारी रावत तक भी पहुंच गई। लिहाजा, चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस संगठन के मौजूदा हालात में नए प्रभारी को पंजाब से वापस दिल्ली लौटने से पहले यह मीटिंग कर नगर निगम चुनाव-2021 के लिए संगठन को नए संदेश देने पड़े। इसका असर किस रूप में सामने आएगा? ये तो अभी किसी को नहीं मालूम लेकिन रावत और बंसल को करीब से जानने वाले मानते हैं कि इन दोनों बड़े सियाने सियासियों के तेवर बता रहे हैं कि वे संगठन की रार पाटने का कोई सुखद रास्ता जल्द निकालने की दिशा में तेजी से सक्रिय हो गए हैं।
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