समर्पण से युक्त एवं अहम भाव से मुक्त ही वास्तविक भक्ति: माता सुदीक्षा जी महाराज
CHANDIGARH: “समर्पित एवं निष्काम भाव से युक्त होकर ईश्वर के प्रति अपना प्रेम प्रकट करने का माध्यम ही भक्ति है।“ उक्त उद्गार सत्गुरू माता सुदीक्षा जी महाराज ने महाराष्ट्र मुम्बई समागम के द्वितीय दिन के समापन पर अपने प्रवचनों द्वारा व्यक्त किए। यह जानकारी श्रीमति राजकुमारी मैम्बर इंचार्ज प्रैस एण्ड पब्लिसिटी विभाग ने दी।
भक्ति की परिभाषा को बताते हुए सत्गुरू माता जी ने कहा कि भक्ति कोई दिखावा नहीं, यह तो ईश्वर के प्रति अपना स्नेह प्रकट करने का एक माध्यम है, जिसमें भक्त अपनी कला जैसे गीत, नृत्य एवं कविता के माध्यम से अपने प्रभु को रिझाने के लिए सदैव ही तत्पर रहता है।
सत्गुरू माता सुदीक्षा जी ने प्रतिपादन किया कि वास्तविक भक्ति किसी भौतिक उपलब्धि के लिए नहीं की जाती अपितु प्रभु परमात्मा से निस्वार्थ भाव से की जाने वाली भक्ति ही ‘प्रेमाभक्ति’ होती है। यह एक ओत-प्रोत का मामला होता है जिसमें भक्त और भगवान एक दूसरे के पूरक होते हैं। भक्त और भगवान के बीच का संबध अटूट होता है और जिसके बिना भक्ति संभव नहीं है।
यदि हम प्रेम करते हुए भक्ति करेगें तो जीवन में जहाँ विश्वास और बढ़ता जायेगा वहीं एक सुखद आनंद की अनुभूति प्राप्त होगी। भक्ति केवल कानरस के लिए नहीं, यह तो ईश्वर को जानने के उपरांत हृदय से की जाने वाली प्रक्रिया है। यह किसी नकल या दिखावे से नहीं की जाती। यदि हम केवल पुरातन संतों की क्रियाओं का अनुकरण करके भक्ति करेगें तो उसे वास्तविक भक्ति नहीं कहा जा सकता हमें इन संतों के संदेशों का मूल भाव समझना होगा।
सत्गुरू माता जी ने आगे कहा कि भौतिक जगत में मनुष्य को कुछ बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। जैसे यदि हम एक बच्चे की जीवन यात्रा को देखें तो पहले पढ़ाई, फिर काम और उसके पश्चात् उसी काम में तरक्की की सीढिय़ों को चढ़ते चले जाना है। किन्तु, दूसरी ओर यदि हम भक्तिमार्ग को देखें तो वहाँ पर भक्त अपने आपको गिनवाने की बात नहीं करता, अपितु गंवाने की बात करता है। सच्चा भक्त वही है जिसमें स्वंय को प्रकट करने की भावना नहीं होती बल्कि, वह तो ईश्वर के प्रति पूर्णत: समर्पित होता है। भक्ति में जब हम इस पहलू को प्राथमिकता देते चले जायेंगे, तो हम यह महसूस करेंगे कि अपनी अहम् भावाना को त्यागकर इस प्रभु परमात्मा के साथ इकमिक होते चले जायेंगे।
इस बात को सत्गुरू माता जी ने एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया कि सागर बहुत गहरा और ठहरा होने के बावजूद भी गतिमान रहता है, इसलिए उसमें कभी काई नहीं जमा होती, जबकि अन्य जगहों पर ठहरे हुए पानी पर काई जम जाती है। इस उदाहरण से हमें यही शिक्षा मिलती है कि भक्ति रूपी नदी का बहाव तो एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसमें भक्त अपने भगवान के प्रति समर्पित हो जाता है। भक्ति को और परिपक्व बनाने के लिए सेवा, सुमिरण एवं सत्संग यह तीन आयाम है, जिससे जुड़कर विश्वास और दृढ़ हो जाता है और फिर किसी प्रकार की नकारात्मक रूपी काई मन में नहीं जमा होती।
सेवादल रैली
समागम के दूसरे दिन का शुभारंभ एक आकर्षक सेवादल रैली से हुआ जिसमें महाराष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों से आये कुछ सेवादल भाई-बहनो ने भाग लिया। इस रैली में सेवादल स्वयंसेवकों ने जहां पी. टी. परेड, शारीरिक व्यायाम के अतिरिक्त मल्लखंब, मानवीय पिरामिड, रस्सी कूद जैसे विभिन्न करतब एवं खेल प्रस्तुत किए। मिशन की विचारधारा और सत्गुरू की सिखलाई पर आधारित लघुनाटिकायें भी इस रैली में प्रस्तुत की गई।
सत्गुरू माता जी ने सेवादल की प्रशंसा करते हुए कहा कि सभी सदस्यों ने कोविड-19 के नियमों का पालन करके मर्यादित रूप से रैली में सुंदर प्रस्तुतिकरण किया और साथ ही माता जी ने यह संदेश दिया कि हमें मानवता की सेवा के लिए सदैव ही तत्पर रहना है।
सत्गुरू माता सुदीक्षा जी महाराज ने सेवादल रैली को अपना आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि सेवा का भाव ही मनुष्य में मानवता का संचार करता है और यही सेवा की भावना हमें यह स्मरण कराती है कि सेवा किसी वर्दी की मोहताज नहींय तन पर वर्दी हो या न हो सेवा का भाव होना आवश्यक है। सेवा के द्वारा ही अहम् की भावना को समाप्त किया जा सकता है और सेवा करते समय हमें इस बात का अवश्य ध्यान देना चाहिए कि हमारे मुख एवं कर्मों द्वारा कोई ऐसा कार्य हमसे न हो जाये, जिससे किसी को ठेस पहुँचे।